सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

diversity लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मौसम

मौसम ने जैसे अपना घर बना रक्खा है, तमाम रंगों से हर कोना सजा रक्खा है! पलक झपकते बदल देती है नज़ारों को, जरूरत का सारा सामान जमा रक्खा है! जब जिसको कहे वो उस रंग में ढल जाए, यूं सब से अपने रिश्तों को बना रक्खा है! कोई मुकाबला नहीं है खूबसूरत होने का, इरादों को ही अपना चेहरा बना रक्खा है! जमीं, पौधे, पानी, पहाड़, बादल, आसमान एक दूसरे को अपना आईना बना रक्खा है! इधर बादल आसमान को जमीन ले आते हैं, जमीं ने पेड़,पहाड़ों को जरिया बना रक्खा है! जिद्द क्यों हो सबकी अपनी एक जगह है, बस इंसानों ने ये तमाशा बना रक्खा है!

जाओ भरसाई में ......

उनका शहर देख लिया, दोपहर देख लिया, रोशनी वहां भी है, अँधेरे भी होंगे, गुम होने को कई कोने भी होंगे, अँधेरे यहाँ भी बहुत हैं, पर गुम नहीं हो सकते, सच्चाईयां सर सवार हैं, और भीड़ ज्यादा है, कंधे रगड़ रहे हैं,  कब किस की मुश्किल अपने कंधे आ जाये और वहां खामोशी कितनी है, चाहें तो  अपने ही ख़्वाब सर चढ़ बोलते हैं, और यहाँ बारिश हो तो आँखे गीली करते हैं, मुल्क है कोई और  या जैसे मुरख को आइरनी(IRONY)  समझाने  कसर न रहे ये सोच थी? सड़कों पर जगह बहुत है  लोग कम पड़ जाते हैं, पुराने शहरों को चमका के रखा है,  इतिहास किताबों में होता है सुना था, काम चार दिन होता है  और दिन छोटे?  जाहिर सवाल है, इन लोगों को कोई काम नहीं? और दवाइयां भी मुफ्त, पता नही सब बीमार क्यों नहीं पड़ते...? हमारे यहाँ बांटो,  भले-चंगे लाईन में नज़र आयेंगे, दवाई दावतों में खिलाएंगे, अज़ीब दुनिया है, कहीं समंदर है आराम, और कहीं जीना हराम, चक्रवात तूफ़ान शायद किसी पागल ने बनाई है, अब क्या बोलें जाओ भरसाई में !