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अंधे आसमाँ 5

खेल - अब देखिए! मेरा अपने से बेजोड़ मेल , अपनी हिम्मत से दो - दो हाथ , डर के साथ , डर से बात कौन बड़ा? करने के डर और न करने का , आमने सामने खड़े हैं! ज़िंदगी के सारे सच टूट कर , पैरों तले पड़े हैं!! हारा कौन? जीता किससे? होंगे मशहूर मेरे किस्से!! क्या मुश्किल है? अपनेआप से हारना? या अपनेआप को मारना? फर्क है कुछ? कहीं? किसको? मैं जी रहा हूँ! किसके लिए? कोई कदम मेरे साथ? कोई पीठ पे हाथ? किसी की नज़र मुझ पर? या मैं बेनज़र हूँ? बेअसर? तमाम , हाथ , पैर , नाक , कान , मुँह की भीड़ में एक , अनेक? रोज़ का किस्सा? भीड़ का हिस्सा? मुझे दिखता है ….! मैं अब कहाँ हूँ! आप भी अब देखिए!

मैं और मेरा सरमाया!

मेरा "मैं" होना, और "मैं" मेरा होना, जो मैं हूँ, पहले से, होते हुए, एक सफर है, सीखे को भुलाने की, जो 'यही होता है' समझने की, उसके आगे जाने की, "जाने दो", जाने दूं? कभी ये सवाल है, सवाल हैं? कभी एहसास, हर लम्हा मैं खुद को सुनती हूँ, गुनती हूँ, बुनती हूँ, कभी मैं हूँ, कभी मैं नहीं, फिर भी, मैं ही हूँ मेरे होने में, पाने में कभी खोने में, पूरी एक दुनिया नज़र आती है, जब मैं,खुद में गहरे जाती हूँ, क्या सच, क्या माया, जो सोचा कहाँ से पाया, फंतासी या सपना आया? क्या है मेरा सरमाया!? किसे ख़बर!? (ये दोस्त निष्ठा की इंग्लिश अभिव्यक्ति का ट्रांस्पोइट्रेशन है, तस्वीरें भी उसी की नज़र और कैमरे से हैं)

अपने से गुमशुदा!

अपने ही रास्ते अब तय नहीं कर पाते, अपने ही सपनों में अब हम नहीं आते, अजनबी हो रहे हैं खुद से हर रोज़, जानते हैं अच्छे से पर मिलने नहीं जाते! कैसे कह दें के तमाम अरमान हैं, रास्ते अलग हैं दुसरे सामान हैं,  मर्ज़ी की मज़बूरी के सब काम हैं, शिक़ायत है के बहुत आराम है! खुद से ही कई शिकायत हैं, पर वो हम कर नहीं पाते! कई शौक हैं मुक्कमल हमारे ओ शोक जो किनारे नहीं पाते!! खुद के ही सामने नहीं आते, ज़िक्र करते हैं सुन नहीं पाते! दूर नहीं हैं अपने उसूलों से, पर उतने नज़दीक नहीं जाते!! धुरी भी हम, चक्का भी हम, हम ही सवार हैं! दूरियां तय नहीं होती, हम ही जिम्मेदार हैं!! ख़ुद से बग़ावत  हम कर नहीं पाते, संभले हुए हैं इतने, बहकने नहीं पाते!

तुम भी न!

मुझको मेरे बारे में बतलाते हो, अब मैं क्या बतलाऊँ, तुम भी ना, कम सुनता हूँ ये बड़ी शिकायत है, फिर भी कितना कह देती हो, तुम भी न, इतने सवाल कहाँ से आ जाते हैं, यूँ तो रग-रग से वाकिफ़ हो, तुम भी न, उम्र हो गयी साथ सफ़र, जो जारी है, फिर भी तनहा हो जाती हो तुम भी न गुस्से से, कभी हार और और कभी प्यार से, अच्छा लगता है पास आती हो, तुम भी न, क्या जिस्मानी, क्या रूमानी या रूहानी, तुम फिर भी तुम ही रहती हो, तुम भी न, पूरी दुनिया अपनी है हर एक इंसाँ, फिर सामने तुम आती हो, तुम भी न! फितरत सब की पकड़ने की फितरत ये, मेरी बात मुझे कहती हो, तुम भी न मौसम बदला, बदलेंगे मिज़ाज़ भी, कम ज्यादा होंगे हम, तुम भी न