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नयी सुगंधें!

मुश्किलें हांसिल हैं उनको, जो सफ़र के काबिल हैं, क्युँ तवज़्ज़ो उन सोचों का जो अभी तक जाहिल हैं! पेशानिओं के बल गिनने को फ़ुर्सतें न हो हांसिल, मुस्करा और करती जा अपने सारे दिन काबिल! मुसरुफ़ियत के दिन सारे, अब तेरे पैमानों में, हो शामिल पहले खुद ही, तु अपने दीवानों में! जिक्र हो तेरा अब, और कई अफ़सानों में, बिक रही है जो किताबें नयी-नयी दुकानों में! ऐसे भी मोड़ गुज़रेंगे, जो कहेंगे काफ़िर है याद रहे फ़क्त इतना, तू एक मुसाफ़िर है! उम्मीद कोई यतीम नही,कहीं सबके ठिकाने हैं, अब नयी सुबहों को तेरी, नये कई आशियाने हैं!

इमरोज़

बड़े कायदे से एक कायदा तोड़ दिया, दुनिया को सरेआम गुमराह छोड़ दिया! कहें वो जो कहते हैं, यही होता आया है, समाज़ सदियों से यूँ ही सोता आया है! मर्ज़ी थी सो हमने कर दिया मन-माफ़िक पहले भी ये इल्ज़ाम अपने सर आया है! दुनिया हमारे कदमों में कभी भी नहीं थी, कुछ अपनों से आज़ ये पैगाम आया है!  बड़ी बेमुरव्वत निकली मोहब्बत अपनों की,  कहाँ  दुआओं में आज अपना नाम आया है? मुश्किलों में कब हमने अपना साथ छोड़ा ये अपनापन ही अपने बड़े काम आया है, कोई भी अकेला नहीं है इस सफ़र में, फ़िर क्यों रास्तों पर इल्ज़ाम आया है?  अरसे से एक दुआ थी जो कबूल हो गयी,  क्यों किसी ज़ुबान पर काफ़िर नाम आया है!  इल्ज़ाम लगते हैं बहक गये हैं हम बेखुदी में युँ तो आज ही हाथों मे अपने जाम आया है! (इमरोज़ ने सितम्बर २००० में‌ हैदराबाद ऑल्ड़ सिटी में एक अंतराष्ट्ईय संस्था प्ले फ़ॉर पीस में एक वॉल्टीयर का काम शुरु किया था, 16 साल की उमर में, आज वो अमेरिका में प्ले फ़ॉर पीस की ऑपरेशन मैनेजर हैं और कोस्टारिका की UN पीस युनिवर्सिटी से Masters कर रही हैं!)