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बँटवारा!

आपस में आज अपना बँटवारा हो गया मैं मेरा हो गया , तू तेरा हो गया जिस ड़ाल पर बैठे बसेरा हो गया वो बैठा और बोला घर मेरा हो गया आँख खुली थी बस सबेरा हो गया कोई परेशान है सुना अँधेरा हो गया कहता है वो दुश्मन हमारा हो गया एक रिश्ता भगवान को प्यारा हो गया रास्ते ख़त्म नहीं होते किसी मोड़ भी दीवारों का फिर क्यों ये बसेरा हो गया  लंबा सफ़र एक रस्ता और मकाम सारे  एकदम क्यों मतलब सब दोहरा हो गया कैसा झगड़ा ये कि दिन मेरा हो गया सूरज निकला कैसा कि अंधेरा हो गया (2000 में  रचित, सीमित सोच और असुरक्षित मानसिकता को श्रदांजलि स्वरूप )

सौदे सफ़र के!

अपने मज़हब के हम यूँ ही यकीं हो गये, संज़ीदगी के अपनी ही शौकिन हो गये, आसमां अपने सारे जमीन हो गये दिल में डुबो हाथ, देखिये रंगीं हो गये हाथ रंगने को मिट्टी बहुत है, फिर भी लोग खून लाल करते हैं मौत कोई बीमारी नहीं है, काहे फ़िर मुर्ख इलाज़ करते हैं आसमां क्यों लोगोँ के मज़हब बनते हैं, क्यों गुमराह लोग रास्तों को करते हैं अपने ही हाथ आते मुकरते हैं, क्यों सफ़र छोटा करने को कुतरते हैं रास्ते के कंकड़ सब, मील का पत्थर हुए, जो रुक गये उनके सारे घर हुए! पर मुसाफ़िर इस हलचल से अंजान है, सारे घरों का सराय नाम है !  कहने को तो दुनिया सराय है,   समय रहते आये तो चाय है,  जिद्द है आपकी घर बनाए हैं,  घांस को गधा है कि गाय है! मान लो, जान लो, पहचान लो, कोशिश सबकी यही की सच को आसान लो पर दो पल बदलती दुनिया में, मुमकिन नहीं कि आज को कल मान लो!