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ये क्या हो गया है?

जो मिट्टी को जान देता है, किसान ! उसपर गद्दारी का इल्ज़ाम हो गया है!! हक मांग रहा है बस अपने पसीने का, पर कान सल्तनत का ह राम हो गया है! पहुंचते नहीं हाथ दूर बहुत है, ये कैसा संविधान हो गया है? राम बोलने वाला ही भगवान हो गया है, यूं कत्ल कितना आसान हो गया है? अल्लाह का फ़ैसला अब भगवान करेगा, इंसानियत का काम तमाम हो गया है! फ़ैसला ये की तेरा मजहब क्या है , गुनहगार का नाम मुसलमान हो गया है इंसाफ देने वाले सब पंसारी बने हैं, वजन देख सारा हिसाब हो गया है! गलत है! पर भीड़ की अकीदत है ये, जो तोड़ा वही उनका मकान हो गया है!

मुर्दा बड़ा मस्त है!

कुछ नहीं न होना, बहुत खल रहा है, कुछ ऐसा ये दौर चल रहा है, अपने आराम के बेशरम हो गए हैं, भूला, भुलावा अब छल रहा है। घर जंजीर है, जर जंजीर है, तमाम तामीर जंजीर है, यूं होना ही गुनाह है, और गुनाह पल रहा है। दायरे ख़त्म हैं सारे के सारे, हर हद की जद है, शोर जितना है हर घर वहीं खामोशी बेहद है! कातिल हैं अपने ही, अपनी ही कब्र बने बैठे है, बदल गए हैं उफ़क सारे, बस नाउम्मीदी के सहारे हैं! हंस रहे हैं, मुस्करा रहे हैं, खुद को गंवा रहे हैं, आईने तमाम हैं बाजार में, पैसे बड़े काम आ रहे हैं!!