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इंसानी विधाएं!

दुनिया बहुत भरमाए है,  तस्वीर मन लुभाए है,  मन बहुत बहकाए है,  जिम्मेदार कौन हो? इंसान अब भी मूरख है,  नीयत से धूरत है,  काट, छाँट, बाँट,  ये तरक्की की सूरत है! मौत के डर से ज़िंदगी निचोड़ते हैं,  सारा रस निकालने को,  लाश बनने को,  कहां कोइ कसर छोड़ते हैं! काबिल हैं तमाम बातों के,  लिख्खा है सौ किताबों में,  समझ को बदल ताकत में,  बने लातों के भूत बातों से!  दूर दूर तक के सफ़र हैं,  मुमकिन सोच के असर हैं,  फ़िर क्यों 'मैं मानव' में सिमटे हैं?  किस सवाल के कम हैं? हर शुरुवात मोहब्बत है,  फ़िर रिश्ता बनती है,  फ़िर सौदे की बातें सब,  ये रास्ते दुनिया चुनती है! दर्द जो हमारे हैं,  बडे ही हमको प्यारे हैं,  लाखों कत्ल कर कुदरत के,  कहते, 'वाह!क्या नज़ारे हैं'! फ़िर भी ये नहीं के हम इंसान कम हैं,  या नेक होने को अरमान कम हैं,  पर अपनों से ही सारी लडाई है,  उधडें वही जो बुनाई है, बनाई है!