जो पूछते हैं हमसे, साल कैसा था, सोचते हैं हम, ये सवाल कैसा था? उस गली में हो रहा कत्लेआम कैसा था? जो सुने नहीं उन चीखों का अंजाम कैसा था? जो लुट गए उनका सामान कैसा था? जो मिट गए उनका राम कैसा था? आपकी नफरतों के जो काबिल हैं, उनका ग़रेबाँ कैसा था? जो 'मंदिर वहीं बना' उसकी जमीं कैसी थी ओ आसमान कैसा था? अपने नहीं हैं जो उनका श्मशान कैसा था? या कब्रिस्तान कहिए? गाज़ा के बच्चों का अरमान कैसा था? अलेप्पो (हलब) में खंडहर कुर्दिस्तान कैसा था! न हंस पाएं उन बच्चियों का अफगानिस्तान कैसा था? मत पूछिए मुझसे के साल कैसा था, हाल कैसा है? जो "आंख ही से न टपका" वो मलाल कैसा है?
अकेले हर एक अधूरा।पूरा होने के लिए जुड़ना पड़ता है, और जुड़ने के लिए अपने अँधेरे और रोशनी बांटनी पड़ती है।कोई बात अनकही न रह जाये!और जब आप हर पल बदल रहे हैं तो कितनी बातें अनकही रह जायेंगी और आप अधूरे।बस ये मेरी छोटी सी आलसी कोशिश है अपना अधूरापन बांटने की, थोड़ा मैं पूरा होता हूँ थोड़ा आप भी हो जाइये।