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मौसम

मौसम ने जैसे अपना घर बना रक्खा है, तमाम रंगों से हर कोना सजा रक्खा है! पलक झपकते बदल देती है नज़ारों को, जरूरत का सारा सामान जमा रक्खा है! जब जिसको कहे वो उस रंग में ढल जाए, यूं सब से अपने रिश्तों को बना रक्खा है! कोई मुकाबला नहीं है खूबसूरत होने का, इरादों को ही अपना चेहरा बना रक्खा है! जमीं, पौधे, पानी, पहाड़, बादल, आसमान एक दूसरे को अपना आईना बना रक्खा है! इधर बादल आसमान को जमीन ले आते हैं, जमीं ने पेड़,पहाड़ों को जरिया बना रक्खा है! जिद्द क्यों हो सबकी अपनी एक जगह है, बस इंसानों ने ये तमाशा बना रक्खा है!

मन के मौसम!

  मिल कर मन के मौसम बना रहे हैं, बादल ले कर आसमां आ रहे हैं, रंगों को कुदरत से छलका रहे हैं, ब्रशस्ट्रोक हवाओं के लहरा रहे हैं, कैनवास पल–पल बदल आ रहे हैं, ज़मीन पैरों तले पिघला रहे हैं, खड़े हैं जहां, वहीं बहे जा रहे हैं, मिल कर मन के मौसम बना रहे हैं, और वहीं हैं हम जहां जा रहे हैं! पहुंचे थे पहले पर अभी आ रहे हैं मूर्ख हैं जो वक्त से नापने जा रहे हैं, खर्च वही है सब जो कमा रहे हैं, दुनिया कहेगी के गंवा रहे हैं, और जागे हैं जब से जो मुस्करा रहे हैं!

नाकाफियत!

क्यों उन रास्तों से गुजरते हैं जो अपनी नजर में चढ़ते उतरते हैं? कहां पहुंचेंगे? सही जा रहे हैं क्या? भटक गए तो? अटक गए अगर? साथ मिलेगा क्या? कैसे होंगे लोग? उस डगर, गांव, शहर? अगर–मगर, अगर–मगर, अगर–मगर दम फूल गई, क्या भूल हुई? हार गए क्या? कमजोर हैं? नहीं जाएंगे ही! पहुंच कर दम लेंगे! वो लोग कर लिए तो! हम क्या कम हैं? हर मंजिल सांतवा आसमान है, कामयाबी,  अगली लड़ाई के लिए, हौंसला–कमाई, कहीं पहुंच जाना जैसे जंग की फतह है! ये सोच कितनी सतह है! आख़िर किसका जोर है? जहन में, जिस्म में, कितना शोर है? देखो जरा आस–पास,  पेड़, पानी, जमीन, जंगल खड़े हैं सो खड़े हैं, पड़े हैं सो पड़े हैं बहते बहे हैं, चलते चले हैं, फिर भी पल–पल बदल रहे हैं, हर लम्हा संभल रहे हैं, खुद ही रास्ता हैं, और अपना ही मकाम हैं, कुछ साबित नहीं करना, न खुद को न दुनिया को! पूरे नहीं है,  न मुकम्मल हैं, पर कुछ कम भी नहीं है , जो हैं बस वही हैं! इसमें कहां कुछ गलत–सही है? नाकाफियत – एक नकारात्मक एहसास, शिक्षा और संस्कार द्वारा पैदा की गई बीमारी जो लोगों के जहन में ये सोच डालती है कि आपमें कोई कमी है और आप हमेशा बड...

मूरख हम–तुम!

कुछ ऐसी सुबह थी,  बेवजह थी बस होने के लिए न कोई डर, न फिकर, निकल पड़े बादल, कोहरा कब्जा करने! मर्द कहीं के! सदियों के अनुभव क्यों अकल नहीं बनते? जो विरासत में मिली वो नकल क्यों बनते? सुबह ढकी हुई है, सूरज सफेद है, फिर भी कोई कमी नहीं उनको, अपने रास्ते चल रहे हैं, जाने और आने में फर्क कहां है, वही जगह है, सब आपकी नजर कहां है? सब कुछ शांत, निश्चल, पाक – साफ़ जब तक हम काम नहीं बनते, एक दूसरे के लिए सामान नहीं बनते, घटते–बढ़ते, कम –ज्यादा! पेड़, पौधे, रास्ते ओस, जाले, सब बेवजह हैं, उनको उनका होना  मुकम्मल है! ये बस इंसान है मुरख जिसको आज– कल है!

कौन पहचान!

एक छत चार दीवार घर  गली शहर सुबह शाम चार पहर वास्ते किसके, किससे, साथ, रिश्ते दोस्ती आसमान, जमीन, पेड़ पौधे रंग हजार, ऊंची उड़ान, गले मिलती हवा  धूप सहलाती वास्ते किसके किससे! साथ रिश्ते दोस्ती ये धरा आपकी क्या है आपकी पहचान?

देख - ए लुक!

इंसान देख बहुत सारा मकान देख, जंगल बन गए दुकान देख, सीढियां कहाँ तक ले जाएगी? बना और, और थोड़ी, और देख, जंगल घरों के देख, हर तरह के,  हर रंग में ढंग में बेढंग में, कोई छोटे, कोई बड़े कुछ शोर करते  आंखों में, देख देख, कुछ चुपचाप, विनम्र, कुछ ताड़ की तरह, कुछ बौने सबके सामने, उम्मीद देख, अरमान देख, अना ओ अभिमान देख, शान देख, जीजान लगा दी, जीवन की कमाई देख? देख क्यों? किसलिए? इस सब की जरूरत देख, जरूरत की व्यथा देख, देख, सोच अन्यथा देख, छूटा भरोसा देख, झूठा दिलासा देख, दिल बहलाने को , ग़ालिब ये घर देख! देख इंसान बस, इंसानियत मत देख! डर देख,  अगर देख, मगर देख, बाजार का कहर देख, बिकने को तैयार, बेचने को तैयार, कौन है ख़रीददार देख? बादल देख, बारिश देख, कुदरत की गुजारिश देख, क़ायनात की नवाज़िश, देख सकता है तो देख, शहर बना कर,  बढ़े बड़े घर बना,  कहाँ पहुंच रहे हैं देख? इतनी तरक्की की है, चाँद वाली, मार्स वाली, गति देख, गत देख? जहां जा रहे है उस कल की सूरत देख? अभी भी वही लड़ाई है, अभी भी जीतना है? वही पुराना डर, कोई न बैठे हमारे सर? देख देख देख, मान सके तो मान मूरख, अपने को कमजोर...

इंसानी प्रकृति!

आपसी रिश्ते सिर्फ़ इंसान से रिश्तों से खून के जातीय मकान से खरीदे सामान से पसंदीदा पकवान से पालतू जानवर , या धर्म की मानकर और धरती से ? जिसके उपर सब खडे हैं ! क्या हम सब चिकने घडे हैं ? कहां वो शुरुवात हुई , जो आखिर हमारी मात हुई ? एक अलग ईंसानी जात हुई बुद्धि , विवेक , संवेदना की बात हुई ? और फ़िर लगे जंगल कटने , जानवर जंगली बन गए , संरक्षित , जो बचे हैं , हमारी दयामाया से , क्या है हमारी प्रकृति ? हरियाली से हमारा क्या रिश्ता है ? या वो सिर्फ़ एक चीज़ है , बाज़ार की दुनिया वाली , इस्केवर फ़ीट के दाम वाली , या छुट्टिंओं वाली , हमारे ज़िंदगी के हसीन पलों की , याद दिलाने वाली , तस्वीरों की पॄष्ठभूमि ? धरती को माता कहते हैं , इसे तो नाता कहते हैं ! इंसानी दुनिया को पालने - पोसने वाली , फ़िर क्यों ये हाल है ? क्यों प्रकृति बेहाल है ? भूकंप , सुनामी , सायक्लोन , ज्वालामुखी , जंगल जंगल आग कहीं ये जज़्बात तो नहीं ?