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खामोशी!

  खामोशी की आवाज सुनी है कभी, उसमें आहट भी एक शोर होती है, एक आह भी घनघोर होती है, कोई कराह दे तो जैसे दर्द के सागर झलकें, कोई सराह दे तो सर आसमान, खामोशी में बड़ी जान होती है, सुनिए, मुश्किल आसान होती है! खामोशी से चाह हुई है कभी? कि उसमें इंतजार भी एक सफ़र है, नज़र उठ जाए तो सहर है, झुक जाए तो कहर है, मुस्कराहट चार पहर है, साहिल से "दो·चार" लहर है! खामोशी की राह चुनी है कभी? नज़र ही इकरार है, नज़र ही इंकार है, नज़र ही इसरार है, नज़र ही नफ़रत, नज़र ही प्यार है! गौर कीजिए क्या आसार है? खामोशी से बात की है कभी? उसको सुनना भी कहते है! और फिर गुनना भी, रिश्ता बुनना भी कहते हैं, सही लम्हा चुनना भी, खामोशी मांगी नहीं जाती, सब के पास है, बहुत काफी और काफ़ी खास है! रुकिए ज़रा, दो घड़ी ठहरिए, सुनिए खुद को, श श शश, खामोशी बोल रही है!

गूंजती खामोशियाँ!

सब खामोश हैं कोई सुन नहीं सकता? दर्द सारे मज़हबी रंगों में बिकने लगे हैं! बेख़बर अपने खंजरों से, इतने मासूम हैं सारे दोष शिकार के, ऐसे गुनहगार हैं!  किस किस क़त्ल पर भगवान का नाम है, बस एक मत्था टेका के सौ खून माफ हैं! इतनी चुप्पी है या कान के पर्दे फट गए? इतने घिनौने सच, सब धर्म जात में बंट गए! नफ़रत माफ, झूठ माफ, सरेआम कत्ल माफ़? अपने धर्म की शिक्षा सबको कितनी साफ है! घर बैठे हर एक गुनाह की वकालत करते हैं, आंखों पर पट्टी बांध सब इबादत करते हैं! अपनी कमियों ने कितना कमजोर किया है,  इलाज़ ये कि किस किस को दोष दिया है? यूँ नहीं की शहर के सारे आईने ख़ामोश हैं!  किसके हाथों बिक रहे हैं, ये किसको होश है? ज़ुल्मतों की कमी नहीं, और रोशनी कातिल है, किसको इल्ज़ाम दे के अपने ही सब शामिल हैं! (ज़ुल्मतें - अँधेरे)

हमारी सरकार - एक आत्मकथा!

हाथ पांव में दम नहीं हम किसी से कम नहीं बॉर्डर पर कुछ उठापटक हमको उसका गम नहीं, मर गए मासूम जवान, घड़ियाली आंसूं हमरे भी सच में आंखें नम नहीं? हम पहले ही बोले थे आज लड़ने का मन नहीं! बोलने में हम सबसे आगे, करने धरने का दम नहीं, धर्म के नाम के धंधे सब उसमें कोई सरम नहीं, फल की चिंता हम न करते, इसलिए कोई करम नहीं, काम चल जाएगा झूठ से, इसमें हमको भरम नहीं! ताक़त ही सर्वेसर्वा है, दिल के हम नरम नहीं! पत्रकार सब पालतू पिट्ठु सो कब्ज़ा सच पर कम नहीं! बहका दे सब पब्लिक को, इस बारे कोई वहम नहीं, विरोध को ही खरीद लेते, पूछो, किसकी ज़ेब गरम नहीं? मजबूर की क्या मदद करना, अबे! हमको काम कम नहीं? काल मरे से आज मर, आज मरे सो अभी! हाथ पे हाथ धर मंत्रीगण, चमड़ी मोटी कम नहीं! वादे झूठे थे सब के सब हमारा निठ्ठलापन नहीं,  आप मान कर सच बैठे,  मूरख आप कोई कम नहीं!

देश भगती!

अच्छे दिन आए क्या? खुशहाली लाए क्या? ज़मीर जगाए क्या? क्या भारत एक है? क्या हम सहनशील हैं? क्या हम समृद्ध हैं? क्या हम सुरक्षित हैं? भीख़ मांगते बच्चे क्यों हैं? खुदकशी किसानों के सच क्यों हैं? धर्म के नाम के धंधे क्यों हैं? जो कम है वो कमजोर क्यों है? फैसलों में सिर्फ ताकत का जोर क्यों है? कश्मीर में इतनी सेना क्यों है? मंदिर के लिए मस्जिद तोड़ना क्यों है? बलात्कार क्यों हैं? गोरे रंग का भूत सवार क्यों है? मर्दजात रंगदार क्यों है? हर शहर में लाल बत्ती (रेड लाइट) गली क्यों है? मर्द की परिभाषा पैरों के बीच खुजली क्यों है? शिक्षा, स्वास्थ व्यापार क्यों है? हर कोई बिकने को तैयार क्यों है? झूठ इश्तेहार क्यों है? कहाँ फ़ंसा दिये यार, राय पूछते हो जैसे, खाओगे क्या? गाय? पूछते हो! कुछ सवालों के ज़वाब नहीं होते, जो सामने है वो तस्वीर नहीं है, शैतान कलाकारी सोच कर पकाई खीर है, माला पहनी ज़ंजीर है, गलती से लोग गले में डालते हैं, जात के जादूगर, देश्भक्ति का जाल लिये मासूमों को फ़ँसाने में लगे हैं, आज की दौर के ज़लदाद हैं, मुस्करा कर रस्सी लटकवाते हैं, वैसे भी इन...

मुर्दा जानशीन!

आग जल रही है लाखों सीनों में, गश्त की कैद में सूखे पसीनों से! मन चाहा देखने की इजाज़त नहीं है, 9 हफ्तों से शुक्र की इबादत नहीं है? मुश्किल सवालों की आदत नहीं है! हामी के बाज़ार में बगावत नहीं है! सवाल सारे कवायत हैं रियासत की रवायत हैं, फ़रमान ही भगवान है! ख़बरदार, ये जुर्रत,  क्या औकात! गले पर सरकारी हाथ! ट्विटर पर गाली, न्यूज़ सीरियल सवाली, भीड़ की हलाली, धर्मगुरु दलाली! व्हाट्सएप के खेत हैं डर के बीज नफ़रत के पेड़, मज़हबी भीड़, भेड़! कश्मीर सिर्फ जमीन, सुंदर बेहतरीन, 80 लाख कब्र, ज़िंदा,? करोड़ों जोशीले मुर्दा, जानशीन?

आधाजी आजाजी आदाजी!

कश्मीर में उम्मीद कैद, आवाज़ कैद, सारे एहसास कैद, और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवाय! और लगे हैं सब भेड़ बनने में और भी राय हैं दुनिया में सबकी एक राय नहीं, आंखे खोलिए, सुनिए, मत कहना बताए नहीं! जवान को फ़रमान बस बलि के बकरों को शहादत का झाँसा, वाह! सियासत क्या खूब तूने फाँसा! ताकत सड़कछाप बन गयी है चुप, ख़बरदार, मुँहबंद, ये जुर्रत कुछ कहने को है, ये हिम्मत? "जी हुजूर" बस इतनी इजाज़त है, बहाना है कहना "लोकतंत्र" आदत है!! चुप, नफ़रत जारी है मंदिर कहीं बनेगा, मस्जिद कोई गिरेगा, और सब ख़ुशी से बेड़ियां गले लगाएंगे! खासी तैयारी है "जी हुजूर" बस इतनी इजाज़त है, बहाना है कहना "लोकतंत्र" आदत है!! कुछ बोलना भारी है कितनी बरबाद आज़ादी है? गूंगी एक बडी आबादी है! चलिए घांस चरते हैं,  या चल कहीं मरते हैं! धर्म के अंधे सब मंदिर कहीं बनेगा, मस्जिद कोई गिरेगा, और सब ख़ुशी से बेड़ियां गले लगाएंगे! खामोशी गुनाह है हमसे म...