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फ़रेब दिल के!

आईने झूठे हैं या हम मुस्कराते हैं , दिल को कैसे कैसे फ़रेब आते हैं , युँ ही याद कर लेते हैं आपको , यूँ ही आपके करीब आते हैं , मुश्किल नहीं होती आपके जाने की , हम नहीं रोज़ नसीब आज़माते हैं , खामोश आहटें साथ चलती हैं , नहीं दुरियों का शोक मनाते हैं आपकी मोहब्बत के गरीब नहीं ,  फ़कीरी के वो अंदाज़ आते हैं ! न हों तो हर लम्हा बदल जाता है कहां हमको ज़ुदा हिसाब आते हैं ऐसे कोई अकेले कम नहीं पड़ते , पास आये तो दुरियाँ गिनाते हैं बिस्तर को अकेले कम नहीं पड़ते दो हों तो क्यों फ़ासंले गिनाते हैं ? दिल को कैसे कैसे फ़रेब आते है , सपनों में भी हमको आज़माते है