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अपनापन!

हम  उन्हीं आवाज़ों से बात करते हैं , जिन्हें हम खुद सुन सकते हैं , और काया बोलती है , और वो बात करती है , सिर्फ़ , उस देह - ए - दुनिया से , जो उसकी पकड़ में है। और वो अपने आप में एक जहां हो जाती है , गौर करके , कि उसका सरोकार क्या है और ये सीखती है , कि उसे क्या होना है , और क्या लाज़मी है! (डेविड व्हाईट की द  विंटर ऑफ़ लिसनिंग से) From  The Winter of Listening by David Whyte in  The House of Belonging

अभी यहीं। !

मौजूद हूँ हरसू, जहाँ से शुरू हुई, जहाँ विलीन, कहीं पतली लकीर, कहीं कुदरत की शमशीर झरना बन गिरती हुई, कहीं चारों तरफ फिरती हुई, समंदर में खोकर, कहीं मैंमय होकर! जहां भी हूँ, अभी, इस लम्हा हूँ, जीवित, ज़िंदा, जिंदादिल, न में काल थी, न कल होउंगी, इसी एक पल में, हूँ भी और गुम भी, अपनी परछाई नही हूँ! इस जगह और हज़ार मील दूर, मैं ही हूँ, और इसी घड़ी, कहीं उमड़ी, कहीं उफ़ान, कहीं सिमटी, कहीं वीरान और ये सब सच है,  इसी दौरान, आप क्यों हैं परेशान, हैरान,  आँसू, मुस्कान? जो जब है तभी सच है! कितना आसान सचमुच है! बहते रहिए! पर, अगर आप यादों में अटके हुए हैं, तो मुमकिन है सच से भटके हुए हैं, In awe of these words"..the river is everywhere at the same time, at the source and at the mouth, at the waterfall, at the ferry, at the current, in the ocean and in the mountains, everywhere, and that the present only exists for it, not the shadow of the past, nor the shadow of the future.." Siddhartha by Hermann Hesse. ...

काले सच

सुरज की गर्मी से जल कर काले बादल सफ़ेद हो गये, सच के मान्यताओं से मतभेद हो गये हर चीज़ जल कर राख नहीं होती मिट्टी में मिलने से दुनिया खाक नहीं होती सारी शैतानियां लाख नहीं होती लाख कोशिशें दिमाग की, यकीं बिना दिल पर छायी धुँध साफ़ नहीं होती, पेड़ आसमान छू रहे हैं, और पंछी फ़िर भी, लाख कोशिश, दूरियां कम नहीं होती,  अब इसे उड़ान कहें, या  सोच की थकान, आप कहां पहुंचेंगे, कब होंगे, दूरियों के उस ओर, ये इस बात से तय होगा कि  आप अपने रास्तों से चल रहे हैं या अपने रास्तों में पल रहे हैं, तस्वीर आपकी नज़र है, या,  हर अंजाने मोड़ पर आप हाथ मल रहे हैं, प्रक्रिति की दीवारें, कल से,  काल से सीधी खड़ी हैं,  अपने पैरों तले बहती, नदी को छोटा करते,  पर  जब ढहती हैं, तो ऐसे बहती हैं जैसे यही सत्य है, खोना ही होना है, एक अगर आप अब भी खड़े है, क्योंकि घुटनों में बल है, तो सोच लीजिये, क्या ये छल है? जो सच है वो घुटनों के बल है!  (सुरज की आंकाक्षा और बादलों के खुलेपन, विनम्र नदिओं के इरादे और खिसकत...

हमारी क्या प्रकृति है?

क्या निसर्ग से हमारा कोई रिश्ता है? पंछी के कलरव से नदिओं की कल-कल से पत्तों की सर-सर से दिल मे कोई हलचल है! नदियां तो सब पाक साफ़ हैं हैं अब भी? पवित्र ! पर साफ़ कहाँ... .? चाहे गंगा कह लो या थेम्स नील, राएं, मिसी सिपी या वोल्गा इन सब से हमारा क्या सम्बन्ध है? पेड़ों के बढने से चिड़ियों के उड़ने से ....  उन सब से जो जीवित भी(तो) हैं जीवंत भी क्या वो सब हमारा हिस्सा नहीं ? या यूँ पूछिए क्या हम उस सब का हिस्सा नहीं ? तो क्या हम निसर्ग नहीं ?..... ( जिददु कृष्णमूर्ति के शब्दों से अनुरचित )