जब जमीं मकां होती है तो जश्न होता है मकान के जमीं होने पर क्यों अश्क होता है मेरे पैर ज़मीन हैं, कितने नुक्ताचीन हैं, खाते हैं दर ठोकरें फ़िर भी यकीन है! खासे आसमान हैं, रंगों में कितनी जान है! उड़ रहे हैं वो जिनको हांसिल आसान है! जमीं को भी भरोसा है, पैर भी यकीन हैं, आज़ाद है अधूरे दोनो, और पूरे अधीन हैं! मीठे हैं कहीं पर हम और कहीं नमकीन हैं, ज़मीन से हैं सच या सच से यूँ ज़मीन है? उड़ गए वो जिनको परों को कम यकीन है! कैसे समझें पैरों को ज़ंजीर नहीं जमीन है! ज़मीन जड़ है, दीवार नहीं ओ आसमाँ छत, फिर भी अटके हैं सब नाप मीटर,फीट,गज!!
अकेले हर एक अधूरा।पूरा होने के लिए जुड़ना पड़ता है, और जुड़ने के लिए अपने अँधेरे और रोशनी बांटनी पड़ती है।कोई बात अनकही न रह जाये!और जब आप हर पल बदल रहे हैं तो कितनी बातें अनकही रह जायेंगी और आप अधूरे।बस ये मेरी छोटी सी आलसी कोशिश है अपना अधूरापन बांटने की, थोड़ा मैं पूरा होता हूँ थोड़ा आप भी हो जाइये।