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ये पतंग!

ये पतंग है, पर सिर्फ पतंग नहीं, ये तबीयत है, नेक नीयत है, मसला-ए-तरबियत है! आसमाँ से मिलने को चलती है, 'नाही कोयू से बैर' बेफिक्र मचलती है! न कोई जल्दी है, न बेचैनी, उड़ना ही आसमान है, काम कितना आसान है! न डर किसी का,  न मंज़िल का दवाब, जैसे सच कोई ख्वाब! कल्पना की उड़ान है,  इसी में तो जान है, न कटना, न काटना आनंद मिलना, बांटना! (श्रीलंका, कोलंबो में पतंग उड़ाते है, काटते नहीं! एक पतंग 100 मीटर लंबी देखी, यूँ भी संभव है अगर काटने, हड़पने, झटकने, चिल्लाने से बाज़ आएं! )

दावत-ए-ज़िन्दगी!

जिस्मो-जहां की ठरक ठरक ले चल ए दिल किसी और तरफ! सुबह-शाम का कोई फरक, लम्हे चढ़ें सर सरक सरक! नहीं उतरे कोई बात हलक, मेरी दुनिया कोई और फलक! एक सुट्टा और एक जाम अरक, किसको परवा वो क्या है अदब! गले लगने ओ गले पड़ने के फरख, अहमक तहजीबों के कैसे वरक़! अंदाज़ आपके वो लहज़ा-ओ-लहक, इंकलाब इतना के जाये दौर बहक! ज़िंदा हैं सब अरमानों की महक, दावत-ए-ज़िन्दगी बहक बहक!

कसम कुदरत की!

कुदरत नेमत है और, ख़राब इंसानी नीयत, ऊपर से ये शिकायत, की ठीक नहीं हालात! कुदरत शिकार है इंसानी फितरत की, इंसान तरक्की का शिकार है! रात भर सो उठे और सुबह इनाम मिली, प्रकृति की सोच सहज ओ आसान मिली! हमारी क्या प्रकृति है? दुनिया कि क्या आकृति है? प्रकृति से हमारा क्या रिश्ता है? या सामान मुफ़्त ओ सस्ता है सब एक दूसरे को कोसते हैं, जाने कैसे हम जीवन पोसते हैं!?? रोशनी चमकती है पर अँधा कर जाती है, सच देखने के सब तरीके बदल गए हैं!! अंधेरो में ऐसी क्या ख़ास बात है, सब अपने रस्ते निकल गए है! प्लास्टिक के फूलों से सजावट सब तरफ, दुनिया में तरक्की के नए खेल चल गए हैं !

हकीकत की माया!

वो इंसान ही क्या जो इंसान न हो? वो भगवान ही क्या जिसका नाम लेते जुबां से लहुँ टपके? वो मज़हब ही क्या जो इंसानो के बीच फरक कर दे? वो इबादत कैसी जो किसी का रास्ता रोके? वो अक़ीदत क्या जो डर की जमीं से उपजी है? वो बंदगी क्या जो आँखे न खोल दे? वो शहादत क्या जो सिर्फ किसी का फरमान है? वो कुर्बानी क्या जो किसी के लिए की जाए? वो वकालत कैसी, जो ख़ुद ही फैसला कर ले? वो तक़रीर क्या जो तय रस्ते चले? वो तहरीर क्या जिससे आसमाँ न हिले? वो तालीम क्या जो इंक़लाब न सिखाये? वो उस्ताद क्या जो सवाली न बनाये? वो आज़ादी क्या जिसकी कोई जात हो? वो तहज़ीब क्या जिसमें लड़की श्राप हो? वो रौशनी क्या जो अंधेरो को घर न दे? वो हिम्मत क्या जो महज़ आप की राय है? वो ममता क्या जो मजहबी गाय है, बच्ची को ब्याहे है? वो मौका क्या जो कीमत वसूले? …… फिर भी सुना है, सब है, इंसान, भगवान्, मज़हब, इबादत, क्या मंशा और कब की आदत! अक़ीदत और बंदगी, तमाम मज़हबी गंदगी! शहादत ओ कुर्बानी, ज़ाती पसंद कहानी! वक़ालत, तहरीर, तक़रीर, झूठ के बाज़ार, खरीदोफरीद! तालीम और उस्ताद, आबाद बर्बाद! आज़ाद...

जाओ भरसाई में ......

उनका शहर देख लिया, दोपहर देख लिया, रोशनी वहां भी है, अँधेरे भी होंगे, गुम होने को कई कोने भी होंगे, अँधेरे यहाँ भी बहुत हैं, पर गुम नहीं हो सकते, सच्चाईयां सर सवार हैं, और भीड़ ज्यादा है, कंधे रगड़ रहे हैं,  कब किस की मुश्किल अपने कंधे आ जाये और वहां खामोशी कितनी है, चाहें तो  अपने ही ख़्वाब सर चढ़ बोलते हैं, और यहाँ बारिश हो तो आँखे गीली करते हैं, मुल्क है कोई और  या जैसे मुरख को आइरनी(IRONY)  समझाने  कसर न रहे ये सोच थी? सड़कों पर जगह बहुत है  लोग कम पड़ जाते हैं, पुराने शहरों को चमका के रखा है,  इतिहास किताबों में होता है सुना था, काम चार दिन होता है  और दिन छोटे?  जाहिर सवाल है, इन लोगों को कोई काम नहीं? और दवाइयां भी मुफ्त, पता नही सब बीमार क्यों नहीं पड़ते...? हमारे यहाँ बांटो,  भले-चंगे लाईन में नज़र आयेंगे, दवाई दावतों में खिलाएंगे, अज़ीब दुनिया है, कहीं समंदर है आराम, और कहीं जीना हराम, चक्रवात तूफ़ान शायद किसी पागल ने बनाई है, अब क्या बोलें जाओ भरसाई में !

मेरी माँ . . . .तेरी माँ की!

हम वो तहज़ीब है जो सीता का राम करते हैं, तेरी माँ की. . . . .बड़े एहसान करते हैं! मेरी बहन की रक्षा की कसम खाई है तेरी बहन की. . . आज़ बारी आयी है! माँ-बहन है, आदर से प्रणाम करते हैं,  ........... किसी और की, चल पतली गली में तेरा काम करते हैं, कहते हैं इश्क़ में हर चीज़ जायज़ है, थोड़ी जबरदस्ती कि तो क्यों शिकायत है? भुख-प्यास माँ से लिपटकर मिटाई है, आदत है बुरी, क्या हुआ जो तु पराई है! बापों से बदसलुकी की आदत आई है, और माँओं ने अपनी खामोशी छुपाई है स्त्री हमारा धन है, पुरुष मन है, जाहिर है, औरत बिकती है और मर्द की मनमानी है! मर्द की छेड़छाड़, उसकी नादानी है, औरत का सड़कों पर होना बेमानी है!

सौदे सफ़र के!

अपने मज़हब के हम यूँ ही यकीं हो गये, संज़ीदगी के अपनी ही शौकिन हो गये, आसमां अपने सारे जमीन हो गये दिल में डुबो हाथ, देखिये रंगीं हो गये हाथ रंगने को मिट्टी बहुत है, फिर भी लोग खून लाल करते हैं मौत कोई बीमारी नहीं है, काहे फ़िर मुर्ख इलाज़ करते हैं आसमां क्यों लोगोँ के मज़हब बनते हैं, क्यों गुमराह लोग रास्तों को करते हैं अपने ही हाथ आते मुकरते हैं, क्यों सफ़र छोटा करने को कुतरते हैं रास्ते के कंकड़ सब, मील का पत्थर हुए, जो रुक गये उनके सारे घर हुए! पर मुसाफ़िर इस हलचल से अंजान है, सारे घरों का सराय नाम है !  कहने को तो दुनिया सराय है,   समय रहते आये तो चाय है,  जिद्द है आपकी घर बनाए हैं,  घांस को गधा है कि गाय है! मान लो, जान लो, पहचान लो, कोशिश सबकी यही की सच को आसान लो पर दो पल बदलती दुनिया में, मुमकिन नहीं कि आज को कल मान लो!