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इंसानी प्रकृति!

आपसी रिश्ते सिर्फ़ इंसान से रिश्तों से खून के जातीय मकान से खरीदे सामान से पसंदीदा पकवान से पालतू जानवर , या धर्म की मानकर और धरती से ? जिसके उपर सब खडे हैं ! क्या हम सब चिकने घडे हैं ? कहां वो शुरुवात हुई , जो आखिर हमारी मात हुई ? एक अलग ईंसानी जात हुई बुद्धि , विवेक , संवेदना की बात हुई ? और फ़िर लगे जंगल कटने , जानवर जंगली बन गए , संरक्षित , जो बचे हैं , हमारी दयामाया से , क्या है हमारी प्रकृति ? हरियाली से हमारा क्या रिश्ता है ? या वो सिर्फ़ एक चीज़ है , बाज़ार की दुनिया वाली , इस्केवर फ़ीट के दाम वाली , या छुट्टिंओं वाली , हमारे ज़िंदगी के हसीन पलों की , याद दिलाने वाली , तस्वीरों की पॄष्ठभूमि ? धरती को माता कहते हैं , इसे तो नाता कहते हैं ! इंसानी दुनिया को पालने - पोसने वाली , फ़िर क्यों ये हाल है ? क्यों प्रकृति बेहाल है ? भूकंप , सुनामी , सायक्लोन , ज्वालामुखी , जंगल जंगल आग कहीं ये जज़्बात तो नहीं ?

इंसान समझदार!

सुरज की लाली, बादल काली, और इसी में छुपी कहीं हरियाली! और भी रंग हैं पहचाने से, जो हैं, और वो भी जो नज़र नहीं आते, पर आपको सबूत चाहिए, दुनिया अपनी मजबूत चाहिए? पहले जंगल को काट दिया, फिर समंदर को बांट दिया, आसमान में तारे खोजते हैं, फिर पांच सितारा, वातानुकूलित, कमरों में मुट्ठी भर पानी की बोतल खोलते हैं, एक्सपर्ट, उस्ताद, विशेषज्ञ बोलते हैं, हम समझ गए हैं, सिद्द किया है इंसान सबसे समझदार प्राणी है! आप भी समझ गए होंगे? आखिर आप भी इंसान हैं? आख़िर वेदों में लिखा है, ज्ञान से ही मुक्ति है! जल्दी ही!!

पूरी सुबह!

 खूबसूरत एक सुबह देखी, मस्त अपनी पहचान लिए, बिना कोई हलकान लिए, बिखरी हुई जगह जगह, न कोई मंजिल, न कोई वजह, घाँस के तिनकों पर,  फूलों के मनकों पर झुरमुट पर,  मिट्टी को लाल किए, पत्तों के गाल लिए, चलती भी साथ में, रुकी हुई बरसात में झरनों की गुनगुन में मकडी की बन बुन में, पूरी मेरे साथ आ गई, किसी को छोड़ कर नहीं, कोई दिल तोड़ कर नहीं, काश हम भी यूँ हो पाए, अपने भी और उनके भी, बिन टूटे टुकड़ों में, पूरे जितने भी हैं, सफ़र है, मोड़ आएंगे, मुड़ जाएंगे!

एक सुबह डिकोया!

एक सुबह डिकोया, (जगह का नाम है, डिक्शनरी का क्या काम😊) हुआ कुछ नहीं , और फिर भी, रंग सारे, लगे हुए हैं ! खिले हुए, खुले हुए कहाँ से लाते हैं इतना जोश , इतनी उम्मीद? वो भी चारों तरफ   नकारा इंसानों से घिरे होकर, काटते, छांटते, बाँटते, कचरा फैलाते? शायद कोई अहम नहीं  है, कोई और संभालेगा, ये वहम नहीं है! एक एक बूंद,   एक एक पत्ती हर एक फूल, खिला, मुरझाया, गिरा जानता है अपनी ख़ासियत! पूरे भरोसे, कि दुनिया में उसकी जगह है, यही उसकी वजह है! गुरुर किस बात का, किसी की किसी पर विजय नहीं है! (डिकोया, हैटन, श्रीलंका में है)

किसका हाथ है?

किसका हाथ है, किसके साथ है, क्या हो रहा है, ये नहीं, ये की क्या जज़्बात है? आप उम्मीद हैं या सिर्फ हालात हैं? हक़ीकत आग है,  दूर है कहीं, किसी को पास है! वो जुदा है क्या,  जो आपका आकाश है? अनछुआ, अछूता, जो हो रहा है हर ओर, आपको अवकाश है? झाँक रहे हैं सच हर कोने से, क्या नज़र है, तय है आपके होने से! नज़रिया क्या है? वो जो चमकता है या जो स्याह है? वज़ह है क्या ओ क्या सिवाय है? सच के क्या मायने हैं, सच के क्या आईने हैं? जो दिख रहा है वो, या जो टिक गया है वो, मानने को मजबूर हैं, या चलता है क्योंकि दूर हैं?

रास्तों की बातें!

आज दिन भर कितने रास्तों से बात की, नज़रों ने कितनी खामोश मुलाक़ात कीं, नज़ारे दिल खोल कर बतियाते रहे, हम भी  उनकी बातों में आते रहे पैर कर रहे थे शिक़ायत कई बार, क्या करते हम, उनसे नज़रें चुराते रहे, हवा अक्सर हल्के से छू कर गुनगुनाती रही, कभी जोश में आई ओ खिलखिलाती रही। तमाम रंग पहचान हैं ज़मीन आसमान की, लड़ाई नहीं है कोई भी अपनी शान की, पानी बह रहा है, सारी बात साफ किए, छुपा नहीं कुछ, क्या नीयत आप की है? हवा पानी जमीन आसमान, सब सहज, सब आसान! कोई स्पर्धा है क्या? इंसान ओ निसर्ग? कौन बड़ा, कौन महान?

सुबह समझिए!!

सुबह झांकती है हर कोने से, देखिए!  ज़रा उचक अपने बिछौने से, साथ चलने को तैयार, रोशन,  होशयार! अकेले कोई भी नहीं है, अगर आप सिर्फ़ "मैं" नहीं हैं, केवल एक इंसान? इतनी सिमटी पहचान? ढूंढते फिरिए फिर, भीड़ अपनी पहचान, कपड़ों की डिज़ाइन, चेहरे का नक्शा, फेयर व लवली, नॉट सो ईजिली!! जमीन आसमान, जंगल जीव खुला दिल तहज़ीब, फूल पत्ते, मधुमक्खी के छत्ते, गुम होते जानवर, काली होती हवा ? पूछिए खुद से! आप कौन हैं? उस दौड़ की भीड़! जिसकी खो गई रीढ़? या उस दुनिया के अजूबे, जिसमें लाख जीव जंतु दूजे? अकेले अपने लिए, अपने मैं, अपने कुनबे, अपने जात, या ये जगत आप की जात, सब सबके लिए? आप प्राणी हैं या महज़ एक इंसान? अकेले हैं? या सुबह के साथ?

आसान रिश्ते!

यूँ आज उनसे मुलाकात हुई, चाह तो बहुत थी पर कहाँ कोई बात हुई, वो डर गए, हम भी थोड़ा सहम गए, पर इरादा उनका भी बुरा नहीं था, हम भी नेकनीयत ले कर रुके रहे, कुछ लम्हे साथ गुज़ारे, उसने हमको देखा, हम भी खूब निहारे, नज़र मिली पर बात कुछ नहीं चली, कुछ हमने समझा, कुछ उसने भी सोच लिया, बस ये मुलाकात, मुलाक़ात ही रही, जो अधूरी थी वो ही पूरी बात रही, रिश्ता यूँ भी होता है, क्या मिला, क्या बना, कौनसा रास्ता,  इस सब से नहीं वास्ता! बस मैं मैं रहा, वो वो रहा, वो अपनी दुनिया में, मैं अपने रास्ते!!

सच सुनिए!

बादल बदलाव हैं, हर पल, आज, यहीं, न कभी, न कल! सूरज और कितने समंदर समेटे हुए, यूँ की बड़ी फुरसत से आज बैठे हुए! आसमान के रंग कई, सच एक है, हम-आप रंग देख सच बदलते हैं? सब कुछ साफ़ नज़र आता है, आपका ध्यान कहाँ जाता है? कुछ छुपा नहीं सब सामने है, सच वो जो आपके मानने में है! बादल, बरसात, बूंदों से मुलाकात, समेट रहे हैं ज़िंदगी देती है सौगात! हवा का हर मोड़ पर रवैया बदलता है, बुरी आदत जो सिर्फ एक रास्ते चलता है?

सच सुबह!

सब खुश हैं, अपनी अपनी जगह पर अपनी अपनी जगह से, फ़िलहाल, इस पल में और फिर सब बदल जायेगा और फिर भी सब खुश हैं, अपनी अपनी जगह पर अपनी अपनी जगह से सूरज बादल आसमान जमीं सारा निसर्ग, सब साथ हैं, अपनी अपनी जगह भी, और उस के साथ बदलते न अटके हैं , न भटके हैं न कोई चिन्ता है, न कोई इंसिक्युरिटी, न खींच-तान, न अपनी जगह का दबदबा, पानी पानी, हवा हवा सब चल रहा है, सब बदल रहा है, बदलने की कोशिश नहीं, क्योंकि बदलना ही ज़िन्दगी है, कोशिश तब जब डर हो, अगर मगर हो, खम्बों में घर हो, और ये गुमाँ कि कुछ मेरा है, "मैं" मालिक, कितनी इंसानों जैसी बात है, आप ही कहिए, इंसान होना कौन बड़ी बात है!??

कसम कुदरत की!

कुदरत नेमत है और, ख़राब इंसानी नीयत, ऊपर से ये शिकायत, की ठीक नहीं हालात! कुदरत शिकार है इंसानी फितरत की, इंसान तरक्की का शिकार है! रात भर सो उठे और सुबह इनाम मिली, प्रकृति की सोच सहज ओ आसान मिली! हमारी क्या प्रकृति है? दुनिया कि क्या आकृति है? प्रकृति से हमारा क्या रिश्ता है? या सामान मुफ़्त ओ सस्ता है सब एक दूसरे को कोसते हैं, जाने कैसे हम जीवन पोसते हैं!?? रोशनी चमकती है पर अँधा कर जाती है, सच देखने के सब तरीके बदल गए हैं!! अंधेरो में ऐसी क्या ख़ास बात है, सब अपने रस्ते निकल गए है! प्लास्टिक के फूलों से सजावट सब तरफ, दुनिया में तरक्की के नए खेल चल गए हैं !

हवा-पानी ज़मीं-आसमाँ

हवा ने जब छु कर अकेलापन दूर कर दिया, और कभी उसी ने याद दिला दी तन्हाई की!! हवा को खुल कर छू लेने दीजे, कई शिकवे जिंदगी के हवा होंगे! ज़िन्दगी कभी भी नीरस लगे, एक पत्ते पर ज़रा गौर कर लें! मौसम बिखरे पड़े है हर ओर जीवन के, हर पल मुस्कराने की वजह मौजूद हैं! नज़ाकत के दौर ख़त्म हैं, सच जलते हैं आजकल, सर्दी में हाथ सेंकने को!! कब समझेंगे कुदरत एक तोहफा है, कब मानेंगे तरक्की एक धोका है!! सर्दी सर्द नहीं अब, गर्मी पूरी उबल गयी, प्रकृति वही है हमारी हकीकत बदल गयी! ज़मीं देखिये आसमाँ देखिये, ज़रा अपना जहां देखिये, ऊँची इमारतों में बैठ, ज़रा अपने गरेबाँ देखिये! ये आसमां है आज, ये समां है, आप के मुस्कराने का सामां है! कभीकभार, संभल कर, पत्तों को देखें, ........ अपने को पहचानें! अपनों को?