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सुमित सुमीत!

कथनी से करनी बड़ी, कहे दास कबीर, यूँ प्यार से नफ़रत जीते वो ही सच्चे वीर! वो ही सच्चे वीर कि जो दर्द हो जाएं, आँसू जिनके चोट का मलहम बन जाएं! बने चोट का मलहम चलो ये रीत चलाएं, नफ़रत के मारों के चलो सुमीत बन जाएं! बनें सुमीत सब ऐसे कोई न पड़े अकेला, इस दुनिया को करे बहनचारे का खेला! बहनचारे का खेला नहीं सिर्फ़ ये भाईचारा, शामिल हों इसमें सब, नहीं खासा-प्यारा!  हर कोई खासा-प्यारा यही तो है मानवता, यकीन मानो है हम सब में ये क्षमता! क्षमता कितनी हम सब में ये न पूछो, बुद्ध हुए अपने ही बीच, कबीर सोचो!! (एक इंसान से मुलाकात हुई, बात हुई, इंसानियत पर हुए ज़ख्मों का दर्द उनकी आंखों में नज़र आया, वो भी एक डर होता है जो हाथ आगे बढ़ाता है गले लगाने के लिए, ये बात समझ मे आई)