सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

वक़्त लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मोहब्बत के काम!

मोहब्बत क्यों ये मुश्किल काम है? पहलू में उनके सुकूँ, आराम है! क्यों दुनिया में आशिकी बदनाम है? उनकी शिकायत, ये जरूरी काम है! फिक्र है मेरी ये उनका काम है, ये समझ लेना सफर का नाम है! आपस में दोनों खासे बदनाम हैं, आ गया गुस्सा तो खासे आम है! सब शिकायत है मेरी ख़ामोशी से चुप हैं हम और खासे बदनाम हैं! नज़र जब भी नज़रिया बन जाए, समझ लीजे किसी का काम तमाम है! ज़िंदगी जी रही है ख़ूब दोनों को, हम हैं साकी और वो जाम है! मोहब्बत गहरी पहचान है, सुबह मेरी ओ उनकी शाम है! एक-दूजे को मुश्किल-ए-आसान हैं! चैन भी हैं ओ कभी चैन-ओ-हराम हैं!

सुबह की दावत!

आहिस्ता आहिस्ता सुबह जागती है, क्या जल्दी, क्यों जिंदगी भगाती है? सुबह खिली है खिलखिला रही है, खुश रहने को आपको दावत है! सूरज खिलता है या की दिन पिघलता है, जलता है इरादा या की हाथ मलता है! सुबह के सच रोज़ बदलते हैं, आप किस रस्ते चलते हैं एक अंगड़ाई और एक सुबह, फांसला किसको कहते हैं? रोशनी उगती है अंधेरों में तो सुबह होती है, जाहिर है हर बात कि खास कोई वज़ह होती है! सुबह से सब के अपने अपने रिश्ते हैं, कुछ तनहा है, कुछ जलते कुछ खिलते हैं! एक सुबह आसमां में है, एक ज़मी पर, गौर कर लीजे आपका गौर किधर है! एक और सुबह सच हो गयी, अब और क्या चाहिए आप को?  अगर ये सुबह आप को मिल जाए, फिर क्यों कोई और अरमान हो? सुबह को शाम कीजे, दिन अपना तमाम कीजे, गुजर रही है ज़िन्दगी मूँह ढक आराम कीजे! हर रोज़ सुबह होती है, हर रोज हम निराश हैं, हर रोज चाँद ज़ाहिर है, फिर क्यों हम उदास हैं! 

कुछ कुछ होता है!

सूरज खिलता है या की दिन पिघलता है, जलता है इरादा या की हाथ मलता है!  कुछ छुपा सा है, कुछ जगा सा है, कुछ उगा से है, कुछ सुबह सा है! कुछ इरादों सा, कुछ अधुरे वादों सा, कुछ उम्मीदों पे खरा, सच ज़रा ज़रा! कुछ मुस्कान, कुछ आसान, कुछ अंजान कुछ अपना सा लगे है और कुछ मेहमान! कुछ पूरा सा, कुछ अधूरा सा, कुछ जमूरा सा, आपकी नज़र है कुछ, कुछ सपना हुआ पूरा सा! कुछ रास्ते सा, कुछ मकाम तक, अजनबी है रोज, हररोज पहचान कर! कुछ बेबाक सच, कुछ बेखौफ़ कोशिश, कुछ हौसला अफ़ज़ाई कुछ हसीन कशिश!

और कम!

सताने लगी है शाम अब कम थोड़ी कम आती है याद तेरी, अब कम थोड़ी कम . . . . . . . . जोड़ दिये टुकड़े तेरी तस्वीरों के , नज़र आयेंगे तेरे, अब कम थोड़े कम अब अपने सपनों से परेशां नहीं हम, करवटें लेने लगे अब कम थोड़ी कम अपने ही दर्द अब अज़नबी लगते है अंजाने लगते हैं खुद को कम थोड़े कम पेहरा तेरी यादों पर अब कम थोड़ा कम लगता है खालीपन अब कम थोड़ा कम जिक्र तेरा आये तो मुस्कराते हैं हम, दिलगीरी के जिक्र अब कम थोड़े कम अपने एहसास को आईना किये जो हम तेरे बरबाद लगे अब कम थोड़े कम नयी किताबें हाथों में लिये अब हम, खुद से खुद को करते कम थोड़ा कम

खुली दुकान है!

छलकते लम्हे वक्त को मुँह चिड़ाते हैं, घड़ीयों के चक्कर मे कहां कभी आते हैं! कांटे घड़ी के क्या समझें वक्त की नज़ाकत, युँ चल रहे हैं धुन में जैसे सदियॊं की कवायत! भगवान को भागवान करते हैं युँ जीने का सामान करते हैं अपने यकीन से जुदा हैं लोग इबादत को दुकान करते हैं! तन्हाई की दुकानें कितनी, खरीददार कोई नहीं, जज़बातों के बाजार में, अपना यार कोई नहीं ! ससुरे सच सारे, और हम बेचारे, लगाये ताक बैठे हैं देखें अब बारी आयी है सो,अब तक तो पाक बैठे हैं!  हालात सारे बेहया ससुर बने बैठे हैं हाल हमारे नयी दुल्हन बने बैठे हैं! बातॊं-बातॊं में आ गये आसमान तक, युँ ही कुछ देर और कुछ आसान कर! दुआ है कि दुनिया थोड़ी काली हो, रंग कोई भी, गाली न हो सच को इश्तेहार नहीं लगता, और रंग को कोई माली न हो! रंग बिखरे हैं कितने मुस्कानों में, जो रह जाते हैं अक्सर छुप कर बहानॊं में, चलो लटका दें कुछ मस्तियाँ दुकानों पे,   नज़र कहाँ जायेगी आसमानों पर!  वक़्त खोटा है इसके झांसे में न फ़सिये, दिन गिनना छोड़िये, जी भर के हंसिये! मैं और मेरी आवारगी, हालात की कारागिरी, अजनबी मौके हर मो...