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जिंदगी ज़हर!

जिंदगी ज़हर है इसलिए रोज़ पीते हैं, नकाबिल दर्द कोई, (ये)कैसा असर होता है? मौत के काबिल नहीं इसलिए जीते हैं, कौन कमबख्त जीने के लिए जीता है! चलों मुस्कुराएं, गले मिलें, मिले जुलें, यूं जिंदा रहने का तमाशा हमें आता है! नफ़रत से मोहब्बत का दौर चला है, पूजा का तौर "हे राम" हुआ जाता है! हमसे नहीं होती वक्त की मुलाज़िमी, सुबह शाम कहां हमको यकीं होता है? चलती-फिरती लाशें हैं चारों तरफ़, सांस चलने से झूठा गुमान होता है! नेक इरादों का बाज़ार बन गई दुनिया, इसी पैग़ाम का सब इश्तहार होता है! हवा ज़हर हुई है पानी हुआ जाता है, डेवलपमेंट का ये मानी हुआ जा ता है।

पनपने के सच - बचपन

बचपन पनपता है, जवानी मचलती है, बुढापा ठहरता है! चलो बचपन पर लौट चलें, जम कर, जोश से, फूलें–फलें! अपना ही रास्ता बनें, बुनें! खिलना है, खुलना है, तमाम सच बदलना है हाल के, हालात के, उनसे जुड़े सवालात के, नज़रअंदाज़ जज़्बात के! पूछ लें वो सब सवाल जो डरे हुए है, क्योंकि बड़ों के जमीर मरे हुए हैं! उठा लें वो कदम जिसके नीचे की जमीन मालूम नहीं है, रास्ते ऐसे ही बनते हैं! आ जाएं साथ,  वही है बचपन की बात, कहां उसमें, दूसरे को कम करती मज़हब और जात? पनपना, फक्त जिंदा रहना नहीं है, बचपन की चाल चलिए खिलिए, खुलिए,  मिलिए हर पल से ऐसे जैसे ये पहली बार है, खेलिए, नौसिखिए बन, कुछ गलत नहीं, सब सीखने के नुस्खे हैं! दिल बचपन करिए, ज़िंदगी में जरा सचपन कीजिए! कोई द्वेष नहीं, घृणा नहीं, सब खेल हैं, मिलने के, दुनिया से,  उमंग से, चहकते हुए, साथ को बहकते हुए, जब तक है, तब है सौ फीसदी ! फिर कुछ और, या कुछ नहीं! न अपेक्षा , न उपेक्षा चलिए बचपन चलें?

बेवजह सांसे!

  ज़िंदा हूं जैसे कोई गुनाह किए जा रहा हूं, अपनी बेशर्मी में पनाह लिए जा रहा हूं! उम्मीद भी नहीं बची और यकीन भी यतीम है, इस बेबसी को अपनी शमा किए जा रहा हूं! रोशनी भी है और तपिश भी अभी बाकी है, ख़बर नहीं किसको फना किए जा रहा हूं? जाहिर है वो सूरज भी रोशन होगा एक दिन, क्यों हालात को गुमां किए जा रहा हूं? नहीं आना है इस नामाकुल दुनिया में हरगिज़, क्यों फिर इतना पशेमान हुए जा रहा हूं? सिफ़र होने की तमाम कीमतें हैं इस उम्र, क्यों रिश्तों को सामान लिए जा रहा हूं?

बॉडी लैंग्वेज

अकेले हैं,  कुछ ऐसे ही अपने मेले हैं, फिर भी भीड़ कम नहीं,  ख्यालों के रेले पेले हैं जाने कहां कहां धकेले हैं नज़रों की धक्का मुक्की है, बिन बोले कहीं ये रुक्की हैं कदमों की अपनी मर्जी है, अपनी चाहत के दर्जी हैं हाथ खड़े हो जाते हैं, थक जाते हैं थम जाते हैं और कान लड़े ही जाते हैं, हमको नहीं सुनना ये दुनिया, अब मुंह को कौन संभाले है, भटके है जहां निवाले हैं! नाक न नीची हो जाए, बड़े तहज़ीबी हवाले हैं! एडी, घुटने, कंधे, कोहनी अपनी जुबान ही बोले हैं भीड़ बहुत और कोलाहल, पहचाने सब बोले हैं, साथ हैं सब, मजबूरी के, इस साथ के सब अकेले हैं, कहने को सब मेले हैं!

बे-औकात

जीने की कोई परवा नहीं है, मरने का कोई शौक नहीं, होश संभाला कब हमने, इस बात का कोई होश नहीं! बड़े बढ़िया बढ़िया लोग यहां, कुछ खास भी कुछ पास भी, पर उनको करने को, अपने  पास तो कोई बात नहीं! हंसना रोना सब होता है, पर फिर भी हम जज़्बात नहीं, बड़े गहरे समंदर हैं सब, अपनी कोई बिसात नहीं! मुश्किलें सब नज़र आती हैं, पर कैसे कहें आराम नहीं, लंबी उमर है अपनी शायद, पर ये तो कोई इल्ज़ाम नहीं? (जी रहा हूं बस, जैसे कोई गुनाह किए जा रहा हूं![जिगर मुरादाबादी] ) कितने लोग नजर आते हैं, जिनकी कायनात नहीं, हाथ पे हाथ धरे बैठे हम, के अपने बस की बात नहीं! कोशिश तमाम ज़ारी हैं, अब इंकलाब की बारी है, कहने को हम शामिल हैं पर अपनी वो औकात नहीं!  उम्मीदें हैं नजरों में पर दिल में हैं मायूसी भी, आस बहुत हैं गरीब की, शायद अब वो प्यास नहीं!

एक कतरा समंदर!

जो भी है मेरे अंदर है, एक कतरा, एक समंदर है! कतरा एक-एक, एक मंज़र है नज़र में आपकी मंतर है! वो मंतर जो छूमंतर है! मेरे रस्तों का तंतर है! रस्तों रस्तों का अंतर है, अंत मिटा सब अंतर है! अंत भी एक निरंतर है, जीवन जो जंतर मंतर है! जीने मरने में फर्क क्या? सब चार दिन के अंदर है! एक लम्हे सारी उम्र बसी, दिन चार, चार समंदर हैं! एक समंदर तुम, एक मैं, और सफ़र सात समंदर ये! हमसफ़र रास्ता भी हैं, सफ़र ऐसे मुक़म्मल हैं! बिन ख़ामी कौन मुक़म्मल? हर कतरा एक समंदर है!

धूप छाँव के खेल!

धूप छाँव के खेल हैं सब, जीते क्या हारे?  नाप-तोल की दुनिया के  हम सब बेचारे! धूप छाँव के खेल हैं सब, किस करवट क्या हो? किस मोड़ मुड़ें, क्या चाल चलें, रुख क्या हो? धूप छाँव के खेल ये सब, अब आप बताएं?  सच के ही सब खेल क्या जुगत बिठाएं?  धूप छाँव के खेल, और हर चीज़ खिलाड़ी,  जो बनता होशियार है बस वही अनाड़ी! धूप छाँव के खेल हैं सब, पलक झपक ले प्यारे!  एकही सच पर टिके जो सब, वो मत के मारे!! धूप छाँव के खेल हैं सब, किस ओर चलें?  क्या संग, किस रंग, किस ढंग कौन मिले? धूप छाँव के खेल हैं सब, किसके हिस्से क्या आए? सवाल ये भी आएगा, 'आप! क्या अपनी जगह बनाए?

जान है तो पान है!

जान है तो जहान है ये मूर्खता का ज्ञान है, सरकार ने कहा है तो अंधभक्तों का कान है मिडिल क्लास की रट मेरा भारत महान है! ओ रईसों की वाइन है चमक है शाइन है! भूख में क्या शान है? भीख है या दान है? किसका इसमें मान है? न जमीं अपनी, अजनबी आसमान है, सारे मजबूर एक छत में कहते हैं आप, ध्यान है? मुट्ठी भर चावल, दाल कहाँ? न सब्जी का नामोनिशान है? चल पडे हैं मीलों, कोसों, बेदिल आप उनको कोसें? जानिए, मनोविज्ञान है, जो उनका जहान है वो ही उनकी जान है! गांव, घर, परिवार,  गली चौबार, अपना  समाज व्यवहार सब मिल कर जान है? कोई टापू नहीं अकेला एक पूरा इंसान है! भरोसा किस पर करेंगे? काम बचा नहीं, सरकार सोचा नहीं, बंद हैं बस, ट्रेन, कहते है लॉकडाउन है? लाखों सड़क पर, फ्लायओवर सर पर, थोड़ा मिला बहुत समझना कहाँ कोई सम्मान है? हथेली पर जान है, दोगला जहान है, कारों में, बंगलों में ए सी ऑन है!! किसकी जान है? ये कैसा जहान है? क्या आपको तनिक भी इसका भान है? बंजर है जमीन किसकी? किसकी उम्मीद शमशान है?  भीड़ में अकेले ओ सारे रास्ते वी...

सुबह सवाल!

जो हाथ में नहीं वो साथ क्यों मुश्किल छोड़ना ये बात क्यों? क्यों कहते हैं रास्ते साथ नहीं, रास्ते चलते हैं और आप नहीं? सवाल क्यों शिकार बन रहे हैं? जवाब क्यों हिसाब बन गए हैं? बात अपनी ही अपने से करिए, आप ही रस्ता, अपना यकीं करिए!! जो पुराना नहीं क्या वो नया है? क्या जुड़ा ओ क्या खो गया है? आपके कदमों में रास्ते छुपे हैं, क्या आप अपनी ज़मीं से जुड़े हैं? सफ़र में दर्द भी और गर्त भी, नए मोड़ और हमसफ़र भी! क्यों अपने ही इरादों से लड़ते हैं? ग़ुमराह हक़ीकत, आगे चलते हैं!

ज़िन्दगी ख़ाक की!!

ज़िन्दगी दावत है, किसी को... बग़ावत है किसी की ? आदत है, किसी की मुश्किल, और कोई आसान, काम किसी का, नाम कोई बदनाम, मुफ़्त पहचान सरेआम, अकेले, भीड़ में, दौड़ रोज़ की, होड़, काहे? बेपरवाह, आगाह? अपने सफ़र से, दोस्ती, अजनबी मुसाफ़िर से, चलते रास्ते आपके, भांप के, नाप के किसी और के? किस छोर के? सहारे, या यकीन मंझदारे? सह रहे हैं या बह रहे हैं, ख़ामोश या कह रहे हैं? अपनी बात,  ज़िंदगी ज़ज़्बात, क्या परवा साख की? आखिर ज़िन्दगी ख़ाक की!!

मानवता की जय!

, आज एक सुबह देखी, धुंधली, सिकुड़ी, सिमटी, इंसान की सूरज पर विजय देखी, अहंकार की जय देखी, ताकत की शय देखी!! सीमेंट के दैत्याकार पिंजडे में कैद सुबह, मुट्ठी में बंद, चंद दरख्तों में सांस लेती, इंसान के पैरों में, अपनी AC रातों से रात गई टीवी की बातों से, और एक लड़ाई की तैयारी, अपनों से, अपनों के लिए, बाज़ार से ख़रीदे सपनों के लिये! और उस सब से पहले, चंद लम्हों के लिए सुबह का जायका लेने, 2-मिनिट प्राणायाम, हँसने का व्यायाम, देवी को प्रणाम, दिन भर छुरी चलाने, शुरुआत राम राम! किसको फर्क पड़ता है, अपना मतलब निकल गया, बाकी सुबह भाड़ में जाए चाहे धुआं खाए, चाहे धूल उसकी औकात क्या, कल तो फिर आएगी, हमारी गुलाम जो है! हमने असीमित जंगल जमीन किए हैं, इरादे आसमान, हर किसी पर जीत यही है हमारी सभ्यता की पहचान! हम अजेय हैं, हमने स्वर्ग बनाए हैं, वो भी वातानकुलित! नरक भी हमारे तमाम हैं, हम ही तो भगवान हैं!! मानवता की जय!!