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मुमकिनियत!

बचपन में बड़ों के हाथ मनमारते, अब खुद की हद के ख़त्म होते हैं, खुद से जिद्द क्यों नहीं कर लेते, क्यों आप दुनिया को हज़म होते हैं! इतना भी एक रस्ते न चलिए, के खत्म हों पर खबर न हो?    अपने ही जख़्म हुए जाते हैं, क्यों यूँही ख़त्म हुए जाते हैं!    अपने ही आइनों से सब शिकायत है, क्यों खुद को ही ख़त्म हुए जाते हैं! नसीहतें तमाम कुछ न करने की, नेक इरादों के खत्म हुए जाते हैं! नेक नसीहतें आपके रस्ते आती हैं, और आप शराफ़त के खत्म होते हैं?   पहचाने रास्तों पर सफ़र नहीं होते, अपनी ही चाल के हम ख़त्म होते हैं हर मोड़ किसी से मिल लीजे, ज़िंदगी अजनबी है, संभल लीजे? आग़ाज़ कुछ नहीं ख़त्म होने की बात है, उनसे पूछिये जिनको सिर्फ दाल भात है!   बड़े हुए हाथ सहारा भी होते हैं, आप क्यों शक के ख़त्म हुए जाते हैं! ज़िन्दगी से शिकायत नहीं की जाती, अपने ही हाथों से खत्म क्यूँ होते हैं? सपने में तो आप के भी रंगी पंख होंगे, क्यों अपनी हकीकतों के ख़त्म होते हैं?