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रास्तों से वास्ते!

  रास्तों से बातें, या बातें करते रास्ते? रास्ते- कहां हो, कहां जा रहे हो,  किसके वास्ते? भाग क्यों रहे हो, जरा आस्ते-आस्ते! बदल रहे हो या बस चल रहे हो? भीड़ में अकेले और अकेलेपन की भीड़? क्यों मुड़ती जा रही है रीढ़? मैं- और तुम कहां चल रहे हो? ढल रहे हो, पिघल रहे हो, खड़े खड़े, या बैठे-बैठे, या लेटे, कहीं जाते नहीं दिखते, फिर क्यों गुम हो रहे हो? नीयत है या नियत? कैसे भरोसा करें तुम्हारा, न कोई ठौर है, न ठिकाना, न कोई आना-जाना रास्ते - हम साथ है, ठहरे को ठहराव, चलते को सर आंखों लेते हैं, एक साथ दोनों काम कर लेते हैं, हम कदम नहीं गिनते, न मुसाफ़िर चुनते, हम हैं ही कहां? हम चलने से बनते हैं, जहां कोई नहीं चलता, वहां रास्ता नहीं मिलता! क्या अकेले होने से  कोई इंसान बनता है? रास्ते - हम साथ है, ठहरे को ठहराव, चलते को सर आंखों लेते हैं, एक साथ दोनों काम कर लेते हैं, हम कदम नहीं गिनते, न मुसाफ़िर चुनते, हम हैं ही कहां? हम चलने से बनते हैं, जहां कोई नहीं चलता, वहां रास्ता नहीं मिलता! क्या अकेले होने से  कोई इंसान बनता है?

बेढब मुमकिनियत!

पेट भर के बात की उम्मीद क्या करें साथ उम्र भर को दो लम्हा कान चाहिए! जब देखो लगे है सब गधामजूरी में कहते है ज़िन्दगी में आराम चाहिए! दिन कैसा भी गुजरे हर किसी का जी चाहे सुहानी हर शाम चाहये!  क्यों किसी से बैर चाहिए, सबको अपनी खैर चाहिए इतनी जलदी नउम्मीदी, कुछ होने देर-सबेर चाहिए ज़मीं, ज़मीं पर है, और उपर आसमान किसको खबरें पड़कर परेशान चाहिए? कौन दूर है हमसे कौन आ गया है पास ज़िदगी ज़ीना है या इसका हिसाब चाहिये हाँ नही तो, हम नहीं होते यूँ उदास, आईने में नज़र अपने पास चाहिए! जेब में अपनी भगवान चाहिए, उम्मीदों को मुफ़्त दुकान चाहिए, मन हुआ तो सामने हाज़िर हो, किस्मत सबको अलादीन चाहिए! काम चाहिए, नाम और आराम भी, अपने ही पोस्टर लगे बाज़ार चाहिए!

नेल्सन मंड़ेला!

मुझ को ढकी हुई रात के परे , छोर से छोर , काली स्याह , शुक्रगुजार , मैं कुदरती ताकत का , अपनी अपराजित रुह के लिये बिगड़े हालात के चंगुल में , मेरे माथे पे शिकन न गले में रुदन मौकों की मार , मेरे सर को लाल कर दी , झुका न सकी , तमाम नाराज़गी और आँसुओं के परे हावी होते हैं पर परछाई के डर , फ़िर भी , इकट्ठे सालों की धमकी , के सामने मैं हूँ और रहूँगा निड़र , नहीं‌ पड़ता फ़रक कि रास्ता कितना तंग है ,  और क्या जारी हुए फ़रमानों के ढंग हैं , मैं ही अपनी किस्मत का विधाता हूँ ,  मैं ही अपनी रुह का ( कार्य ) करता हूँ ! (ये उस कविता को भाषांतरित करने की कोशिश है, जिसकी पंक्तियों‌ ने नेल्सन मंड़ेला को २५ साल जेल में अपने सच के साथ रहने की ताकत दी, अपनी रोज़मर्रा की मुश्किलों या यूँ कहिये अपनी असंभावनाओं को अपने पर हावी न होने देने की कल्पना!)‌