रंग क्या हैं? नतीजा हैं या वज़ह हैं, बने हैं या बनाए हैं? आख़िर कहाँ से आए हैं? करिश्मा हैं या कैरिसमा क्या अच्छे बुरे हैं? हल्के-गहरे हैं! कम-ज्यादा? अकेले चलते हैं या साथ, रंगों में कुछ अकेला भी होता है क्या? ख़ुद में पूरा, कोई कसर नहीं, दूसरे का रत्ती असर नहीं? पीला, थोड़ा हरा भी होता है? नारंगी ज़रा सुनहरा? क्या लगता है? रंगों की हमेशा लड़ाई चलती होगी? एक दूसरे पर हावी होने को? खासतौर पर सूरज डूबते? शायद उनका दंगा होता होगा, खुली छूट, मार काट? तभी शायद अंधेरा आता है? और बेशर्मी देखो! अगली सुबह फिर शुरू, और बादल आएं तो मत पूछो पर्दे के पीछे से क्या क़त्लेआम, अक्सर लगता है, भगवा ने किया सबका काम तमाम सब भगवा, बाकी सब भाग गया? पर रात! कहाँ कभी पूरी काली होती है? आख़िर चांदनी का ख़ालिस, गहरा सफेद, उसी घुप्प काले के साथ है, क्या लगता है क्या उनके जज़्बात हैं? सदियों से चलती लड़ाई? कभी भी न रात पूरी काली हो पाई न ही चांदनी, काले के मुँह रोशनी पोत पाई! कहीं ऐसा तो नहीं सारे रंग मिले हैं? चाल चलते, हम...
अकेले हर एक अधूरा।पूरा होने के लिए जुड़ना पड़ता है, और जुड़ने के लिए अपने अँधेरे और रोशनी बांटनी पड़ती है।कोई बात अनकही न रह जाये!और जब आप हर पल बदल रहे हैं तो कितनी बातें अनकही रह जायेंगी और आप अधूरे।बस ये मेरी छोटी सी आलसी कोशिश है अपना अधूरापन बांटने की, थोड़ा मैं पूरा होता हूँ थोड़ा आप भी हो जाइये।