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एक सुबह _ _ _ कोई एक!

अलसाये हुए ख्वाब, मुंदी हुई आंखे किसको फ़ुर्सत है कि सुबह करे एक अंगड़ाई लें, चलो आज फ़िर दोपहर करें !  पहलु से कुछ लम्हे, अभी निकले हैं, कुछ लम्हॊं को, ज़ज्ब  करने! जो हमेशा मेरी करवटॊं के साये हैं और एक मुस्कराहट, जो बिखर के आज़ाद है, किसी भी कंधे बैठने को, कैसे कहुं ये मेरी है! हालात कि, ज़ज्बात की, या अभी अभी जो गुजर गयी, एक नन्हे लम्हात कि! और ये आराम नहीं है, सिर्फ़ पैर पसारे हैं, हाथ खड़े नहीं किये, जिंदगी दौड़ नही है, क्या समझेंगे वो, जिनके रास्तॊं को मोड़ नहीं हैं!  झुले जिंदगी के, कुछ भुले नहीं हैं, दो घड़ी अलसाये हैं, ललचाये नहीं हैं, हुँ! शायद थोड़ा सा, एकटु! पर थोड़ी आंखे भी खुली हैं, अभी-अभी सुबह धुली है, सुखने तो दीजे, फ़िर आज़ को इस्त्री करेंगे, स्त्री है, तो क्या? जरुरत को मिस्त्री करेंगे!  और सुबह अकेली हो जाती, सो हम ठहर गये, चंद करवटें, कुछ‌ अंगड़ाई, क्या हुआ जो पहर गये, अपनी ही सांसॊं का, धड़कन का, साथ हम ही नहीं देंगे क्या?  एक दुनिया ये भी है, जो भागती नहीं, बिन आँखें बंद किये जागती नहीं, जहां रुकना आराम नहीं है(हराम वाला) सिर...

अज्ञातमित्र

मैं अज्ञात हूँ थोडा बहुत विख्यात हूँ  किसी दिन अपनी जीत हूँ किसी दिन अपनी मात हूँ अपने ही मुहं से निकली हुई बात हूँ  चाँद का इंतज़ार करती रात हूँ शतरंज पर बिछी हुई बिसात हूँ अपनी ही शह को दी हुई मात हूँ मर्द जात हूँ जात निकला जमात हूँ न बोला जो कभी वो ज़ज़्बात हूँ कहने को ये सब तो फिर क्यों अज्ञात हूँ बची हुई स्याही, अनकही लिखाई दवात हूँ मित्र हूँ अधूरा है जो अभी वो चित्र हूँ लकीरें है आकार नहीं रंग है पर रंगत नहीं पंक्तियाँ है पर पंगत नहीं साथी है पर संगत नहीं मैं अधुरा हूँ इस विचार में पूरा हूँ थोडा गोरा, थोडा भूरा हूँ बचे हुए लड्डू का चुरा हूँ अपने ही हाथ में दिया कटोरा हूँ जो सामने आया वही बटोरा हूँ सारी परम्पराओं का ठिठोरा हूँ! नयी बातों को नौजवान छोरा हूँ जहन में समंदर हैं फिर भी कागज कोरा हूँ !