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रोज़ होते कम!

कितने टूटे हैं हम, कितनी दरारें हैं, रिस रहे हैं  हज़ार जगहों से, लाख वजहों से, कितने कम पड़ते हैं, अपना कहकर, अपनों से लड़ते हैं, छीन लेने को,  उनका यक़ीन, उनका प्यार ज़ख्मों का कारोबार, हिंसा का सिक्का, इतना डर? कैसे इतने हम खर्च हो जाते हैं? खुद को भी बचा नहीं पाते हैं? दुनिया की बंदर बांट में, फिट होने को, बहाना! खुद को तराशते हैं।  सच कुछ और! ख़ुद को ही काटते, छांटते, नापते, हर मोड़ कुछ और कम हो जाते हैं, और फिर  ख़ुद को ही ढूंढते हैं, ज़हन में दरबदर घूमते हैं, न ख़त्म होने वाली तलाश, हमारी लाश! कितने हम बिखरे पड़े हैं, टुकड़ों में,  हर जगह, घर में, दुनिया में, अकेले में, काम पर, दोस्तों के साथ, हर जगह,  अधूरे बड़े हैं, हर लम्हा पूरा होने, खर्च होते हैं, चमक चुनते दुनिया कि, अपने अंधेरों को शर्माते हैं, अपने सामने, खुल कर कब आते हैं? नाम कमाने को अपना, ख़र्च हुए जाते हैं, बड़े सस्ते  खुद को निपटाते हैं! भीड़ में एक नाम? जय श्री!!!