पूना शहर, जैसे इमारतों का कहर, फर्क पड़ता है? क्या शाम, क्या सहर? फर्क पड़ता है! आपकी नज़र का, उसके असर का, आप पर? पर आप को फुर्सत कहाँ? यूँही गुम होती... एक और सुबह!
अकेले हर एक अधूरा।पूरा होने के लिए जुड़ना पड़ता है, और जुड़ने के लिए अपने अँधेरे और रोशनी बांटनी पड़ती है।कोई बात अनकही न रह जाये!और जब आप हर पल बदल रहे हैं तो कितनी बातें अनकही रह जायेंगी और आप अधूरे।बस ये मेरी छोटी सी आलसी कोशिश है अपना अधूरापन बांटने की, थोड़ा मैं पूरा होता हूँ थोड़ा आप भी हो जाइये।