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बैठे हैं, बस!

एक आह लिए बैठे हैं एक चाह लिए बैठे हैं, पहचाने रास्ते हैं फिर भी गुमराह हुए बैठे हैं! दर्द तमाम लिए बैठे हैं, क्या इतमिनान लिए बैठे हैं? अपने दिल के बगीचे को वीरान लिए बैठे हैं! एक मुस्कान लिए बैठे हैं, कैसा ये काम लिए बैठे हैं, कहीं कुछ आसान करेंगे, ये गुमान लिए बैठे हैं! अपना आराम लिए बैठे हैं, नक़ाब पहन लिए बैठे हैं, करम के फल हैं सारे,  मूरख मान लिए बैठे हैं! हाथ बांध लिए बैठे हैं, झूठी शान लिए बैठे हैं, कत्ल हो रहे है सच कितने, ओ वो राम लिए बैठे हैं? नया विज्ञान लिए बैठे हैं, चंद्र, मंगलयान लिए बैठे हैं, ऑक्सीजन कम हुई तो क्या? सब बंद कान लिए बैठे हैं!! नफ़रत ठान लिए बैठे हैं, कैसा धर्मज्ञान लिए बैठे हैं मंत्री संत्री सब एक सुर में, तोतों सा ज्ञान लिए बैठे हैं! मुंह में राम लिए बैठे हैं, बगल संविधान लिए बैठे हैं, घड़ियाली आँसू हैं सारे, ओ सब सच मान लिए बैठे हैं?

यतीम दर्द!

दर्द ये नहीं के बहुत दर्द है, ये कि दुनिया बड़ी बेदर्द है! मदद करने आ गए हैं सब और हर एक के यही दर्द हैं! अपनी ही जमीन से बेघर बुहार कर निकली गर्द हैं! ऐसी बेरुखी रहनुमाओं की, हमारे जिम्मे ही सारे फ़र्ज़ हैं! निकल पड़े मायूस वापस शहर आपके बड़े सर्द हैं! हिम्मत बड़ी काम आई है, मायुसियों के बड़े कर्ज़ हैं! नहीं समेट पाए जलदी में, छुटे शहर में हमारे दर्द हैं!

ढाई आखर दर्द के!

सुनने वाले बहुत हैं पर किसको कान करें?  ग़रीब हमारे दर्द हैं, कैसे यूँ बरबाद करें?  घर पहुंच जायँगे सोच चलते हैं,  कोई नहीं तो मौत से मिलते हैं!!  दर्द कहाँ हुआ,  आह कहाँ निकली!  सुना कहाँ किस ने,  क्या वजह निकली?  सुनते हैं दर्द अगर तो बहरे कान कीजिए,  कोसों चलते मजलूम आप अंजान कीजिए! रोटियां यतीम हो गयीं भूख के दौर में, दर्द गुमशुदा हैं सारे, तालियों के शोर में!   मौसम बदला है और वक्त ठहरा हुआ है, भूखा है दर्द और बहुत गहरा हुआ है! हर एक कदम दर्द से मुलाकात है, जाने समझें उन्हें कहां ऐसे हालात हैं? सुना है घर बैठे भी आप को दर्द हुआ, बहुत देर टी वी पर हमारा चर्चा हुआ!!

आंखों में, आंखों से...

रोज  जीते हैं, और मरते भी रोज़ हैं, अपनी ही आंखों में, आंखों से, आँख मिलाएं कैसे? सब जान कर, देख कर, न माने कैसे, और मान जाएं कैसे? अपनी ही आंखों में, आंखों से, आँख मिलाएं कैसे? जो 'है', वो 'था' अपने अकेले हैं और सब के साथ, क्या है हमारे हाथ? खाली हैं, तो क्या फैला दें? कोई वज़ह तो हो, खुद की पीठ ही सहला लें? मजबूर हैं पर मंज़ूर नहीं हैं, अपनी ही आंखों में, आंखों से, आँख मिलाएं कैसे? अपनी ही आह कब तक सुनें, कौन से दर्द चुनें, अपने या अपनों के? अपनी ही आंखों में, आंखों से, आँख मिलाएं कैसे? मुमकिनियत,  रवैया है या लतीफ़ा हौंसला बढाएं किसका किसकी पीठ सहलाएं? अपनी ही आंखों में, आंखों से, आँख कैसे मिलाएं? क्या तबीयत,  क्या तर्बीयत,  क्या हुकूक, क्या हक़ीकत,  हमारी वज़ा क्या है ओ रज़ा क्या है? बताएं? किसको,  कैसे  ?   अपनी ही आंखों में, आंखों से, आँख मिलाएं कैसे? टूटे काँच, बंद दरवाजे, गुमशुदा, साँसें या लाशें? हर कदम पहरा, शक गहरा, आईनों पर हरसू पहरा! अपनी ही आंखों में, आंखों से, आँख ...

पूरी दुनिया अधूरी कहानी!

मर्द और औरत, एक अधूरी कहानी, एकतरफा, मर्दों की जुबानी! तुम्हारी-हमारी माँ कि......बहन की.... दुनिया नहीं लायक...चाल-चलन की… मर्द और औरत बेगैरत और हैरत! काश सारे के सारे 'ना'मर्द होते, बड़े शरीफ़ औरतों के दुःखदर्द होते! मर्द हुए के फेर में अब मुए बहकाए, बाप, भाई, पति से कैसे प्राण छुटाए, कैसे प्राण छुटाए जान पे बन आई, औरत अपनी मर्ज़ी, तो बने मर्द कसाई! औरत की इज्जत महंगाई, मर्द की इज्जत घटिया, कहीं न बिकाई?? इतना भी क्या मर्द बनना, बेगैरत बेशर्म बनना, औरत सामान, कहें गहना, सजना के लिए क्यों सजना??? मानो न मानो ये खालिस सत्य है औरत, मर्द नाम की बीमारी से ग्रस्त हैं!!

दर्द है!

(दोस्त - कुछ ज़िंदगी को महसूस करने वाला सुनाओ? ) दर्द से दोस्ती नहीं करनी, और दुश्मनी होती नहीं हमसे, मासूम बन गए हैं ऐसे सब दर्द हमारे हिम्मत रखो मत कहिये, कुछ काम की नहीं, बस दो लम्हे आकर साथ मुस्करा दो मैं बीमार नहीं, बीमारी जबरन पास है, प्यास थकी जरूर है पर कम नहीं हुई! मैं आसान हूँ पर मुश्किल में पड़ी हूँ, मैंने सीखा ही नहीं यूँ बेबस होना! (दोस्त - दिमाग में घुस गये हो क्या?) आपने रास्ता दिया, ज़ज्बातों से वास्ता किया, थोडा बहुत हम सब ने एक दूजे को ज़िया है! दर्द आसान हैं गर कोई सुन ले, कम नहीं होते पर संभल जाते हैं! गुजर रहे थे यहीं कहीं एहसास आपके, मैं दुआ कर रहा था तो हाथ आ गए! हम कुछ भी नहीं और आप भी, न हमको ही खबर है, और न आप को कुछ पता दर्द कितना अकेला कर देते हैं, अपना ही साथ देते नहीं बनता! हम भी जोश हैं, मज़ा हैं, अंदाज़ हैं, साथ रहते हैं सब पर कोई नहीं गिनता तमाम नसीहतें मर्ज़ की और मिज़ाज़ के नखरे, किसी का भी साथ देते नहीं बनता ! (एक दोस्त जो केंसर का दरिया पार कर चुकी है, और उसके रेड़ियोधर्मी इलाज़ के साईड़-एफ़ेक्ट्स से अक्सर किसी दर्द से जूझती र...

ग़ूम, गुमां, गुमनाम!

तमाम मसलें हैं किस-किस को बयां करें, नज़र खुद पर, क्यॊं और क्या गुमां करें ! दर्द अपना है, या कोई भुला हुआ सपना है , आप नहीं समझेंगे आपको अभी चखना है!  कुछ इस तरह से अपनी पहचान होती है , तस्वीरॊं से हकीकतें कुछ गुमनाम होती हैं ! तमाम खेल जिंदगी के हमने भी खेले हैं, सफ़र ज़ारी है, और भरते हुए झोले हैं! ताक लगाये बैठे हैं सब कि कब मामूली होगे, आप कहिये अब इस दुनिया से कैसे निभायें! फ़ुर्सत से बैठे कि फ़ुर्सत कब मिले, बड़ी तस्सली से अब इंतेज़ार चले! खबर हो न हो, मुस्तैद अपनी नज़र है, देखें किस मोड़ आज आपका सफ़र् है हमारा खुदा कोई नहीं, हम फिर भी दुआ करते हैं, मर्ज़ खोजेंगे किसी दिन, चलो पहले दवा करते हैं!

कौनसा दर्द!

कितना दर्द, रीढ़ की हड़्ड़ी से दोस्ती कर, सारे सवालॊं को धमकाता हुआ, दुनिया की रीत की रोटी, खाने को उकसाता हुआ! जो होता आया है वही कहो, जो धागा मिलता है उसी को बुनो जो रास्ता जाना-माना(पुराना) है, उसी को चुनो,  दर्द जैसे कुछ कम था सो, रिश्ते,प्यार, और दोस्ती सब अपना फ़र्ज़ करते हैं, समीकरण कहते हैं, कर्ज़ करते हैं!  शुक्रगुज़ार हुँ, या एहसानमंद? मुंकसिर-मिज़ाजी(humility) मेरे सवालों को तनहा न कर दे,  दर्द और भी हैं शरीर के सिवा, उन सवालों के जो गहरे जाते हैं रुह को चुभते हैं और जिनके नुस्खे नहीं आते,  मेरे रास्तों के शौक ही ऐसे हैं, एक होने को चला हुँ, और अकेला हुँ, सब की नसीहत, जिम्मेदारी! कहते हैं भाग रहा हुँ, क्या अर्ज़ करुं, सदियॊं का सफ़र है, और मैं अभी-अभी जाग रहा हुँ!  (एक सहपाठी के दर्द के साथ एक होने की गरीब कोशिश,जो हाल में रीढ़ पर हुए एक ऑपरेशन से संभल रहा है)

दर्द-सर्द-गर्त!

दर्द हो कर भी नहीं हैं ये लम्हे मेरे साथ हैं पर पास नहीं हैं आस हैं पर आराम नहीं है हलचल तूफान की, पर आहट नहीं है अब किनारो पर राहत नहीं है डूब जाना, जी करता है, पर काफी होगा क्या तैरना आता है, उसका क्या?   सर्द कुछ साँसे, अलग सी आहट भी नहीं करती, एहसास जगा जाती हैं, अनजाने रास्ते, अजनबी क्यों नहीं लगते घबराहटें क्यों मुस्कराती हैं, मेरे इरादे, नक़्शे, मेरे कदम, फिर क्यों नई-सी है धड़कन ये चमक कैसी आँखों मैं है संभावनाएं, सामने न सही, उनकी आहट कानों तक पहुँचती है, खामोश साँसे सुनाई देती हैं, घेर लेती हैं, घर करती हैं, सर्द! गर्त कितनी सतहों तले गर्त के, सच जमे हैं, नज़र कहाँ से आयें? मेरे, तुम्हारे, सबके, क्यों? क्या? अलग अलग हैं? मैं , मेरा, अपना, खुद की,  यकीन, सोच, तजुर्बा, खुश्की, चुस्की, जरूरतें किसकी परिभाषाएँ, उम्मीद, आशाएं कितनी परतें हैं, एक को अनेक करती, साफ़, कुछ भी, कैसे हो? है, धूल, पर सारी कोशिशें महज एक निशान हैं, सतह पर रहते, गुनते, चुनते, बुनते सारे सच कफ़न है, गर्त के!