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पहचानें!!

अपनी नजर से खुद को देख पाएं कभी ऐसा एक आइना बना पाएं! शोर बहुत है मेरी नाप तौल का , कोई तराज़ू मेरा वज़न समझ पाए? छोटा बड़ा अच्छा बुरा कम जादा, वो सांचा कहां जिसमें समा जाएं? नहीं उतरना किसी उम्मीद को खरा! जंजीरें हैं सब गर आप समझ पाएं! मुबारकें सारी, रास्ता तय करती हैं, 'न!' छोड़! चल अपने रास्ते जाएं!! वही करना है जो पक्का है, तय है? काहे न फिर बात ख़त्म कर पाएं? अलग नहीं कोई किसी से कभी भी, ज़रा सी बात जो ज़रा समझ पाएं!!

आसान मुश्किल!

ये जो मेरे जमीन आसमान हैं, ये ही मेरे सपनों के सामान हैं! मुझे कहां पंख लगते हैं, उड़ने? वहीं हूं जहां मेरे अरमान हैं! वो ढूंढे जमीं जो आसमान हैं! पैर कहते हैं पुरानी पहचान है!! फिक्र कहां, कब कहां पहुंचेंगे? चल दिए, वही अपना अंजाम है! खोए हैं, अपनी ही तलाश में, कौन कहता है काम आसान है? बनावट, दिखावट, सजावट सब, महंगा सामान ओ सस्ती दुकान है! अक्स है वो, सब जो तराशते हैं! कब समझेंगे बदलता मकान है!

काम की बातें

सब कुछ साथ है, जो गुज़र गई, वो याद है जो चाहिए, वो ख्वाब है , जो कहीं नहीं आपबीती है, जो सुन न सके, एक आह है, एक चाह है, एक राह है, हमेशा आपके साथ जब भी आप, चलना चाहें, कुछ बदलना चाहें! सब खूबसूरत है, मनभाए, लुभाए ललचाए, भरमाए, दिलचाहे, साथ सब का अकेलापन, तमाम बातें, अनकही, खामोशी, शोर मोहब्बत के, और अब ये दौर, नफ़रत भी मुस्कराती है, कितनों के दिल लुभाती है! अफ़सोस! चलिए कोई और बात कीजिए, कुछ हट कर, परंपराओं से, दकियानूसी विधाओं से, सट कर रहना, बीमारी है, देश को, समाज को, हम-आप को, नक़ाब पहचानने होंगे, धर्म-जात के, दूर से बात के, घर बैठे काम, आराम है, घर बैठे लाखों भुख को कुर्बान हैं!

सुनने की सर्दियाँ!

हमारे अंदर जो बेशकीमती है, उसे अछूता रहना है हमारी सोच से जो हमारे होने को कम करती है| उम्दा होने की जो हमारी लड़ाई है, उससे नहीं बनी नन्हे फरिश्ते सी मनचाही हमारी बानी| जो विचलित करती है फिर अपने पनपने को उस सब के साथ जो जरूरी है| खुद की वो बात जिससे हमे नफ़रत है, और हमें नहीं पता कि वो हममें कहाँ है पर जो तरीकों में नज़र आए, उसको समझाने की जरूरत नहीं| हर किसी के भीतर एक असीम आनंद की किलकारी है जन्म लेने को तैयार| और यहां बड़बड़ाती रात में मुझे सुनाई देती है, अखरोट पेड़ की बच्चे के पालने ऊपर लहलाहट, अपने अंधेरी शाखाओं से हवा में और अब बरसात आकर मेरी खिड़की पर दस्तख़ देती है और कहीं और तारों और हवा की इस ठंडी रात में, वो पहली बुदबुदाहट है, उन छुपी और नज़र न आने वाली वसंत कि अंगड़ाई की, ठहरी गर्मी की हवा की वजह से, हर एक अभी तक अकल्पित, सर उठाती हुई!!

अंधे आसमाँ 4

मैं मैं हूँ चीख रहा हूँ पर शोर इतना जो सुनाई नहीं देता! रोशनी इतनी कुछ दिखाई नहीं देता इसमें “मैं” कहाँ हूँ? अपनी नज़र में डूबता , तैरता मेरा नज़रिया किसी किनारे टिक नहीं पाता और किनारे हैं कहां? सब डूबे हुए खुद में “ खुदी” में राग अलापते , “ मैं … मैं … मैं” बस मैं नहीं ……..   इसमें कहीं!!