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जून, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ज़िन्दगी विशाल!

किनारे, क्या इस पार, क्या उस पार, ज़िंदगी, साथ, रोज़ कोशिश बदलाव, कम और जरूरत अनगिनत कमी अकेले कमज़ोर क्या कितना कब सपने पूरे अधूरे टूटे उस पार थढ़, सर अलग धढ़ दर्द चीख़ अपने सपने टूटे क्या कहां जाने दो ट्रेन आने दो ज़िंदगी

कुछ याद सा!

पास है मेरे पर खो गया है! क्यूँ आज ऐसा हो गया है!! दूर है पर महसूस करती हूँ! क्यों मैं ये अफसोस करती हूँ!! अपना था और अपना ही रहा! हक़ीकत, अब सपना सा रहा!! भूलने को तो कुछ भी नहीं! एक साथ था अब याद सा रहा!! आवाज़ अब भी मेरे कानों में है! फिर क्यों सोचूं क्यूँ गुम सा है!! मेरी हँसी थोड़ी अकेली पड़ गई! खिलखिलाहट का मज़ा कम सा है!! उम्मीद, हिम्मत, कोशिश सिखाई! बहुत है फ़िर भी ज़रा कम सा है!! मेरा बचपन ओ जवानी भी था! वो अक्सर मेरी कहानी सा था!! चल पड़ी हूँ अपने रास्तों पर मैं! हर मोड़ कुछ अकेलापन सा है!!

पत्थर और बंदूक !

पत्थर और बंदूक की बातचीत पत्थर - (खामोश) बंदूक - (तड़, तड़, तड़....) पत्थर - ...... बंदूक - हम कानून हैं? पत्थर - हम मासूम हैं! बंदूक - तड़ तड़ तड़ पत्थर - हम ज़ज़्बा हैं! बंदूक - हम कब्ज़ा हैं!! पत्थर - क्यों, क्या, कैसे? बंदूक - तड़ तड़ तड़ पत्थर - अब हम चुप नहीं रहेंगे! बंदूक - हा हा हा....तड़ तड़ तड़ बंदूक - हम इंसाफ हैं पत्थर - इसलिए तुम्हें हर खून माफ़ है? बंदूक - ख़बरदार पत्थर - मौत से? या ज़िन्दगी से? पत्थर - आज़ादी बंदूक - घुटने टेको...तड़ तड़ तड़ बंदूक - तुम आतंकवादी पत्थर - ज़मीं है हमारी! पत्थर - क्यों बलात्कार? बंदूक - हमारे सच, हमारी सरकार पत्थर - दो ही मौसम हैं यहां ,             बंद और न बंद! बंदूक - ज़मीन सुंदर है, और लोग टाट-पैबंद पत्थर - हमारी चीखें हैं , बंदूक -  पैलेट आपका मरहम पत्थर - चुप नहीं करा सकते! बंदूक - "आतंकी है" तड़ तड़ तड़ पत्थर - फेक एनकाउंटर  बंदूक - हमारा तंत्र, सच हमारा पत्थर - कश्मीर हमारा है! बंदूक - जिसकी ताकत उसकी जमीं(लाठी की भैंस) पत्थर - कश्मीर...

आंखों में, आंखों से...

रोज  जीते हैं, और मरते भी रोज़ हैं, अपनी ही आंखों में, आंखों से, आँख मिलाएं कैसे? सब जान कर, देख कर, न माने कैसे, और मान जाएं कैसे? अपनी ही आंखों में, आंखों से, आँख मिलाएं कैसे? जो 'है', वो 'था' अपने अकेले हैं और सब के साथ, क्या है हमारे हाथ? खाली हैं, तो क्या फैला दें? कोई वज़ह तो हो, खुद की पीठ ही सहला लें? मजबूर हैं पर मंज़ूर नहीं हैं, अपनी ही आंखों में, आंखों से, आँख मिलाएं कैसे? अपनी ही आह कब तक सुनें, कौन से दर्द चुनें, अपने या अपनों के? अपनी ही आंखों में, आंखों से, आँख मिलाएं कैसे? मुमकिनियत,  रवैया है या लतीफ़ा हौंसला बढाएं किसका किसकी पीठ सहलाएं? अपनी ही आंखों में, आंखों से, आँख कैसे मिलाएं? क्या तबीयत,  क्या तर्बीयत,  क्या हुकूक, क्या हक़ीकत,  हमारी वज़ा क्या है ओ रज़ा क्या है? बताएं? किसको,  कैसे  ?   अपनी ही आंखों में, आंखों से, आँख मिलाएं कैसे? टूटे काँच, बंद दरवाजे, गुमशुदा, साँसें या लाशें? हर कदम पहरा, शक गहरा, आईनों पर हरसू पहरा! अपनी ही आंखों में, आंखों से, आँख ...

छियानवे बाईसी

बात तारीख की नहीं तारीख़ी की है, गौर कीजिए ज़रा बारीख़ी की है। साल छियानवे, महीना जून, मुकाम अहमदाबाद, अकेले थे 'हम' चन्द मुसाफिरों के साथ, थी पहली मुलाकात, हम तब भी रिश्तों के ज़ाहिल थे, और वो तब भी रिश्तों के क़ाबिल! फिर भी कुछ सुर मिल गए, कुछ ताल जम गई, और कुछ बाल रंग गए! वो दुनिया के अकेले थे, हम दुनिया के अजूबे, अलग रास्तों पर चलने के शौकीन, मुसाफिरी तो उसी वक्त शरू हुई, फिर धीरे धीरे रास्ते एक हुए, और हमसफ़र नेक हुए! बाइसों बाते हैं, चौबीस घँटे का साथ है घर की बात नहीं, काम की बात है, काम भी साथ है, अब हम ही मुश्किल हैं, एक दूजे को, ओ हम ही आसान भी, उलझन भी हम ही हैं, सुकूँ भी! सफ़र ज़ारी है, मंज़िलों के हम दोनों ही गुनहगार हैं, रास्तों के तलबगार! और अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें! अपनी राय और हमारी चाय में फर्क करें!