
किसको फ़ुर्सत है कि सुबह करे
एक अंगड़ाई लें, चलो
आज फ़िर दोपहर करें !
पहलु से कुछ लम्हे,
अभी निकले हैं, कुछ लम्हॊं को,
ज़ज्ब करने!
जो हमेशा मेरी करवटॊं के साये हैं
और एक मुस्कराहट,
जो बिखर के आज़ाद है,
किसी भी कंधे बैठने को,
कैसे कहुं ये मेरी है!
हालात कि, ज़ज्बात की,
या अभी अभी जो गुजर गयी,
एक नन्हे लम्हात कि!
सिर्फ़ पैर पसारे हैं,
हाथ खड़े नहीं किये,
जिंदगी दौड़ नही है,
क्या समझेंगे वो,
जिनके रास्तॊं को मोड़ नहीं हैं!

कुछ भुले नहीं हैं,
दो घड़ी अलसाये हैं,
ललचाये नहीं हैं,
हुँ!
शायद थोड़ा सा, एकटु!
पर थोड़ी आंखे भी खुली हैं,
अभी-अभी सुबह धुली है,
सुखने तो दीजे,
फ़िर आज़ को इस्त्री करेंगे,
स्त्री है, तो क्या?
जरुरत को मिस्त्री करेंगे!
और सुबह अकेली हो जाती,
सो हम ठहर गये,
चंद करवटें, कुछ अंगड़ाई,
क्या हुआ जो पहर गये,
अपनी ही सांसॊं का, धड़कन का,
साथ हम ही नहीं देंगे क्या?
बहुत खूबसूरत अंदाज़ में पेश की गई है पोस्ट......
जवाब देंहटाएंshuruaat achhi kahi jayegi...aage dekhen hota hai kyaa..
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