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नेल्सन मंड़ेला!



मुझ को ढकी हुई रात के परे,
छोर से छोर, काली स्याह,
शुक्रगुजार, मैं कुदरती ताकत का,
अपनी अपराजित रुह के लिये



बिगड़े हालात के चंगुल में, मेरे
माथे पे शिकन न गले में रुदन
मौकों की मार, मेरे सर को
लाल कर दी, झुका न सकी,






तमाम नाराज़गी और आँसुओं के परे
हावी होते हैं पर परछाई के डर, फ़िर भी,
इकट्ठे सालों की धमकी, के सामने
मैं हूँ और रहूँगा निड़र,






नहीं‌ पड़ता फ़रक कि रास्ता कितना तंग है
और क्या जारी हुए फ़रमानों के ढंग हैं,
मैं ही अपनी किस्मत का विधाता हूँ
मैं ही अपनी रुह का (कार्य) करता हूँ!



(ये उस कविता को भाषांतरित करने की कोशिश है, जिसकी पंक्तियों‌ ने नेल्सन मंड़ेला को २५ साल जेल में अपने सच के साथ रहने की ताकत दी, अपनी रोज़मर्रा की मुश्किलों या यूँ कहिये अपनी असंभावनाओं को अपने पर हावी न होने देने की कल्पना!)‌

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