ज़िंदगी नाम है,
या काम?
संज्ञा, सर्वनाम?
क्रिया, विशेषण?
या ये सब तमाम?
क्रिया बिन क्या नाम?
नाम बिन कोई काम?
काम कोई विशेष हो
जो बन जाए सर्वनाम?
या सर्वनाम काम है?
जैसे उपनाम है,
जन्म दर जन्म,
आपको जकड़े हुए,
जात, धर्म विशेषण,
क्रिया एक शोषण?
कुरीति, कुपोषण?
और उन सबका क्या,
जो बेनाम हैं,
उनके लाखों काम हैं,
न उनकी कोई संज्ञा,
न कोई सर्वनाम है!
भाषा से ही,
भाषा में भी
उनका काम तमाम है!
अपने से लड़ाई में हारना नामुमकिन है, बस एक शर्त की साथ अपना देना होगा! और ये आसान काम नहीं है, जो हिसाब दिख रहा है वो दुनिया की वही(खाता) है! ऐसा नहीं करते वैसा नहीं करते लड़की हो, अकेली हो, पर होना नहीं चाहिए, बेटी बनो, बहन, बीबी और मां, इसके अलावा और कुछ कहां? रिश्ते बनाने, मनाने, संभालने और झेलने, यही तो आदर्श है, मर्दानगी का यही फलसफा, यही विमर्श है! अपनी सोचना खुदगर्जी है, सावधान! पूछो सवाल इस सोच का कौन दर्जी है? आज़ाद वो जिसकी सोच मर्ज़ी है!. और कोई लड़की अपनी मर्जी हो ये तो खतरा है, ऐसी आजादी पर पहरा चौतरफा है, बिच, चुड़ैल, डायन, त्रिया, कलंकिनी, कुलक्षिणी, और अगर शरीफ़ है तो "सिर्फ अपना सोचती है" ये दुनिया है! जिसमें लड़की अपनी जगह खोजती है! होशियार! अपने से जो लड़ाई है, वो इस दुनिया की बनाई है, वो सोच, वो आदत, एहसास–ए–कमतरी, शक सारे, गलत–सही में क्यों सारी नपाई है? सारी गुनाहगिरी, इस दुनिया की बनाई, बताई है! मत लड़िए, बस हर दिन, हर लम्हा अपना साथ दीजिए. (पितृसता, ग्लोबलाइजेशन और तंग सोच की दुनिया में अपनी ...
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