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तलाश का इन्तेज़ार

वो रोशन रात थी या उज़ालॊं की लाश थी  
बुलंद इमारत, कामयाब इबारत,
अंदाज़ जश्न के, और
इतनी रोशनी कि सच्चाई जल गयी,
ठिठुरती बेबसी अधनंगी सी, कैसे पल गयी,
" काश” होती एक जिंदगी, जैसे

गड़्ड़ी से फ़िसल गया ताश कोई,
बेसबर नज़र इस आस में‌ कि
मिलेगी तलाश कोई,
और हम बस चल रहे हैं, 
एक और शाम,
और हम निगल रहे हैं,
अंदाज़ भी है, एहसास भी, इरादे भी,
फ़िर भी सहारा दे नहीं पाती, 
तिनका हुँ?
पर खुद भी बह रही हुँ,
किनारा होने को . . . .
क्या नहीं दे दुं!
नज़रें बेबस से नहीं मिलीं, 
पर खुद की बेबसी संभल गयी,
एक रास्ता नहीं मिला,

पर अपनी सुबह को रोशनी दिखा दी,
कैसे कहुँ मज़बुरी थी,
मेरी नज़रॊं ने आज़ मेरी उम्मीदें जगा दीं!
आमीन!

- किसी के फेसबुक स्टेटस से चुराई, नीचे लिखी भावनाओं को समझने की एक कोशिश, 
["And on my evening walk I see this huge bunglow flooded with lighting, must be a wedding home and outside the house lay a half clad begger shivering in the cold..........and I feel so small about being able to do nothing about this 'george of life'. If only I could find a way to just get this man back on his feet, teach him to find a source of living and lead him towards living a dignified human life again.......what would I give...........

Starting with myself, doing my bit where I can, doing my job well ............
Making my son an 'aware' person right here, right now. Being thankful about being blessed with all I have been given ! Thank You God for everything . :) :)"]

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