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अप्रैल, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कुछ खोया . . . नहीं !

रुकी-रुकी सी सुबह ये रात कैसे गुजर गयी ये हवा का रुख है बदला या खुशबू तेरी ठहर गयी जो अभी-अभी थी जली हुई वो आग कैसे बुझ गयी तूने पलकों का परदा गिरा दिया या आँख मेरी खुल गयी वक्त-वक्त की बात है , तू हमेशा मेरे साथ है तु ख्वाब मेरे तोड़ दे तेरी याद मेरे पास है लम्हे-लम्हे का हिसाब क्या , एक उम्र पूरी गुजर गयी अकेली ही थी तू , जो तस्वीर पर नज़र गयी कभी-कभी ये ख्याल भी , रगें दिल की सिहर गयीं , बस जिक्र तेरे नाम का , कुछ बात ऐसे असर गयी जगी-जगी ये रात और सब करवटें ठहर गयीं खामोश मेरे हालात थे और बात सारे शहर गयी ,  

गलत गुमानियाँ!

युँ अपने दिल पर नज़र होगी ,  किस आहट से धड़कन असर होगी पास आयेंगे तो पूरी कसर होगी ,  गुजरते लम्हों की रहगुजर होगी! उम्मीद को आसमाँ क्यों बनाएं ,  यकीन को जमीं कीजे कल क्यों पेशानी पर लिखा है , आज सफ़र को हसीं कीजे! हसरतें दर - बदर भटकती हैं ,  नज़रों को क्या दोष कीजे , आदतें सामने सर पटकती हैं , कैसे नये रस्ते जोश कीजे ! सहुलियतें सारी परेशान हैं , क्यों मुश्किलें युँ आसां होती है , दुनियादारी की तमाम सलाहियतें  बस युँ ही नादां होती है! जिन्दगी हाथों में , नज़र आती है , उम्मीद , बातों में नज़र आती है सच्चाई , हंसती खेलती दिखती है , इबादत , इरादों में नज़र आती है! ये साथ मिल कर बनाया है ,  दरो - दीवार अपनी हमसाया हैं काम बहुत, कब तक आगोश में बैठें ,  जतन से ये घोंसला बनाया है!

और कम!

सताने लगी है शाम अब कम थोड़ी कम आती है याद तेरी, अब कम थोड़ी कम . . . . . . . . जोड़ दिये टुकड़े तेरी तस्वीरों के , नज़र आयेंगे तेरे, अब कम थोड़े कम अब अपने सपनों से परेशां नहीं हम, करवटें लेने लगे अब कम थोड़ी कम अपने ही दर्द अब अज़नबी लगते है अंजाने लगते हैं खुद को कम थोड़े कम पेहरा तेरी यादों पर अब कम थोड़ा कम लगता है खालीपन अब कम थोड़ा कम जिक्र तेरा आये तो मुस्कराते हैं हम, दिलगीरी के जिक्र अब कम थोड़े कम अपने एहसास को आईना किये जो हम तेरे बरबाद लगे अब कम थोड़े कम नयी किताबें हाथों में लिये अब हम, खुद से खुद को करते कम थोड़ा कम