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अपनी ही राख़!

ये कैसा वनवास है,
क्यों थक गई मेरी प्यास है?
क्यों मुस्कराहट उदास है?
अब भी जल रही हूँ,
देख, सुन,
वो आह जो बदहवास है,
छू रहे हैं दर्द अब भी,
नहीं जो मेरे खास हैं,
महकी हुई है दुनिया
जो मेरे आसपास है,
चुस्त सारे हवास (senses) हैं,
ये कैसी बेदारी (awakening) है,
एहसासों की बेगारी है,

"मैं" फिर भी मैं हूँ,
अपने महलों से सुसज्जित,
लज्जित, 
अपनी रोशनी से झुंझलाई,
जो उन अंधेरों तक 
पहुंचते नहीं, जहाँ
मेरी नज़र जाती है,
किस से मुँह फेरूं,
ख़ुद से, या
अपने एहसासिया निकम्मेपन से

आख़िरकार
मैं ही कम हो रही हूं,
अपनी ही संवेदना से,
जल रही हूँ, जल चुकी हूं?
क्या मैं अपनी राख हूँ?



अपनी ही रोशनी में जल रहे हैं!
राख बन कर अपनी चल रहे हैं!

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