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खुली दुकान है!

छलकते लम्हे वक्त को मुँह चिड़ाते हैं,
घड़ीयों के चक्कर मे कहां कभी आते हैं!

कांटे घड़ी के क्या समझें वक्त की नज़ाकत,

युँ चल रहे हैं धुन में जैसे सदियॊं की कवायत!


भगवान को भागवान करते हैं
युँ जीने का सामान करते हैं
अपने यकीन से जुदा हैं लोग
इबादत को दुकान करते हैं!



तन्हाई की दुकानें कितनी, खरीददार कोई नहीं,
जज़बातों के बाजार में, अपना यार कोई नहीं !

ससुरे सच सारे, और हम बेचारे, लगाये ताक बैठे हैं
देखें अब बारी आयी है सो,अब तक तो पाक बैठे हैं! 


हालात सारे बेहया ससुर बने बैठे हैं
हाल हमारे नयी दुल्हन बने बैठे हैं!

बातॊं-बातॊं में आ गये आसमान तक,
युँ ही कुछ देर और कुछ आसान कर!

दुआ है कि दुनिया थोड़ी काली हो, रंग कोई भी, गाली न हो
सच को इश्तेहार नहीं लगता, और रंग को कोई माली न हो!



रंग बिखरे हैं कितने मुस्कानों में,
जो रह जाते हैं अक्सर छुप कर बहानॊं में,
चलो लटका दें कुछ मस्तियाँ दुकानों पे,  
नज़र कहाँ जायेगी आसमानों पर! 

वक़्त खोटा है इसके झांसे में न फ़सिये,
दिन गिनना छोड़िये, जी भर के हंसिये!

मैं और मेरी आवारगी, हालात की कारागिरी,
अजनबी मौके हर मोड़ पे,क्या हसीं बेचारगी!

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