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कौनसा दर्द!

कितना दर्द,
रीढ़ की हड़्ड़ी से दोस्ती कर,
सारे सवालॊं को धमकाता हुआ,
दुनिया की रीत की रोटी,

खाने को उकसाता हुआ!

जो होता आया है वही कहो,
जो धागा मिलता है उसी को बुनो
जो रास्ता जाना-माना(पुराना) है,
उसी को चुनो, 

दर्द जैसे कुछ कम था सो,
रिश्ते,प्यार, और दोस्ती
सब अपना फ़र्ज़ करते हैं,
समीकरण कहते हैं,
कर्ज़ करते हैं! 

शुक्रगुज़ार हुँ, या एहसानमंद?
मुंकसिर-मिज़ाजी(humility) मेरे सवालों को
तनहा न कर दे, 

दर्द और भी हैं शरीर के सिवा,
उन सवालों के जो गहरे जाते हैं
रुह को चुभते हैं और जिनके
नुस्खे नहीं आते, 

मेरे रास्तों के शौक ही ऐसे हैं,
एक होने को चला हुँ,
और अकेला हुँ,
सब की नसीहत, जिम्मेदारी!
कहते हैं भाग रहा हुँ,
क्या अर्ज़ करुं,
सदियॊं का सफ़र है,
और मैं अभी-अभी जाग रहा हुँ! 

(एक सहपाठी के दर्द के साथ एक होने की गरीब कोशिश,जो हाल में रीढ़ पर हुए एक ऑपरेशन से संभल रहा है)

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