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दर्द-सर्द-गर्त!


दर्द
हो कर भी नहीं हैं
ये लम्हे
मेरे
साथ हैं पर पास नहीं हैं
आस हैं पर आराम नहीं है
हलचल
तूफान की, पर आहट नहीं है
अब किनारो पर राहत नहीं है
डूब जाना, जी करता है,
पर काफी होगा क्या
तैरना आता है, उसका क्या?


 

सर्द
कुछ साँसे, अलग सी
आहट भी नहीं करती,
एहसास जगा जाती हैं, अनजाने
रास्ते, अजनबी क्यों नहीं लगते
घबराहटें क्यों मुस्कराती हैं,
मेरे इरादे, नक़्शे, मेरे कदम,
फिर क्यों नई-सी है धड़कन
ये चमक कैसी आँखों मैं है
संभावनाएं,
सामने न सही,
उनकी आहट कानों तक पहुँचती है,
खामोश साँसे सुनाई देती हैं,
घेर लेती हैं, घर करती हैं,
सर्द!


गर्त
कितनी सतहों तले गर्त के,
सच जमे हैं,
नज़र कहाँ से आयें?
मेरे, तुम्हारे, सबके,
क्यों? क्या? अलग अलग हैं?
मैं, मेरा, अपना, खुद की, 
यकीन, सोच, तजुर्बा,
खुश्की, चुस्की, जरूरतें
किसकी
परिभाषाएँ, उम्मीद, आशाएं
कितनी परतें हैं,
एक को अनेक करती,
साफ़, कुछ भी, कैसे हो?
है,
धूल, पर
सारी कोशिशें महज
एक निशान हैं,
सतह पर रहते,
गुनते, चुनते, बुनते
सारे सच कफ़न है,
गर्त के!

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