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रिश्ते, कड़वाहट और दो घूँट ज़हर!

तमाशा सारी बातॊं का, मेला रिश्ते नातॊं का
बड़े काम का है समझो अब महकमा लातॊं का

वो अपने, काम के हैं क्या, वो अपने काम के है क्या?
सब अपने, नाम के हैं क्यॊं, सब अपने नाम के हैं क्या?


पैदा किया तो बाप होते हैं, जबरन 'आप' होते है
रिश्तॊं के नाम से न जाने कितने पाप होते हैं

कभी पुरे नहीं पड़ते, अजीब उनके माप होते हैं
वो "बड़े" बनते हैं उम्र के और हम खाक होते हैं 


नौ महीने का अचार, कह दिया इस को मां का प्यार
अपनी बात को आँसू चार, लाचार ममता या व्यापार?

ममता है तो क्यॊं सिर्फ़ 'अपने' नज़र आते हैं?
क्यॊं कर रिश्ते सारे खून से लकीरें बनाते हैं?

 त्याग भी है और आँसू भी, और बेबसी आदत है,
दुनिया ज़ुल्मी है, और हरदम इसकॊ दावत है!

मर्द को जात कैसी, भुत को बात कैसी,
बिन अंधेरॊं के रोशन कायनात कैसी? 

आप तो मर्द है, ये मसला बड़ा सर्द है,
ये कैदे उम्र है और लावारिस सब दर्द हैं!

रिश्तॊं के आचार को मसाला नहीं लगता,
ऎसे भी भुखे हैं कोई निवाला नहीं लगता!

सारे रिश्ते खुन के, रिसते हैं तमाम उम्र,
बेखबरी जख्मॊं से कैसे हो वहशियत कम!

अपनी मुस्कराहट से मुझे कतई इंकार नहीं है,
मेरी कड़वाहट भी पर कोई पापड़-अचार नहीं है!

दो घूँट ज़हर के, और एक उम्र का पहरा है,
जो दिखता नहीं है वो जख्म बड़ा गहरा है!



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