पानी पहाड़ों का , रिसता हुआ , बूंद - बूंद मिट्टियों से सट के , तिनकों से लिपट के , हर कण को तर के , गोद भर के , बिन ड़र खोते हुए , किसी और का होते हुए पहचान ? खोने का ड़र है . . . . .? आप जरूर इंसान होंगे ! आपके ड़र आपके भगवान होंगे और उधर वो एक बुंद धारा बनी है , गुजरने वालों का सहारा बनी है , हर मोड़ बदलने के लिये तत्पर , धर लो , भर लो , सर लो , चुल्लू कर लो , मर्ज़ी या मजबूरी ? अटकी या भटकी ? जरूर इसके पीछे कुछ छुपा है ! मुरख इंसान कि सोच , अपनी नज़रों से सीमित तिल - तिल सच देख कर तस्वीर बनाती है , और उधर धारा नदी है और सागर होने जाती है , बड़ा होने का शौक है , इसलिये नही . . . ये कोशिश न करने का असर है , बस जुड़ना है , एक होना है , क्योंकि वही सच है , पर इस दौर के इंसान को क्या समझे जो अर्जुनी मुर्खता से विवश है ! अहं का चिकना घड़ा , दुसरों को काट - छाँट के अपने को बड़ा करने में , हर तरफ़ आईने खड़ा करने में कब समझोगे , बड़ने के लिये किनारा लगता है , ...
अकेले हर एक अधूरा।पूरा होने के लिए जुड़ना पड़ता है, और जुड़ने के लिए अपने अँधेरे और रोशनी बांटनी पड़ती है।कोई बात अनकही न रह जाये!और जब आप हर पल बदल रहे हैं तो कितनी बातें अनकही रह जायेंगी और आप अधूरे।बस ये मेरी छोटी सी आलसी कोशिश है अपना अधूरापन बांटने की, थोड़ा मैं पूरा होता हूँ थोड़ा आप भी हो जाइये।