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अक्तूबर, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बूंद बूंद सफ़र!

पानी पहाड़ों का , रिसता हुआ , बूंद - बूंद मिट्टियों से सट के , तिनकों से लिपट के , हर कण को तर के , गोद भर के , बिन ड़र खोते हुए , किसी और का होते हुए पहचान ? खोने का ड़र है . . . . .? आप जरूर इंसान होंगे ! आपके ड़र आपके भगवान होंगे और उधर वो एक बुंद धारा बनी है , गुजरने वालों का सहारा बनी है , हर मोड़ बदलने के लिये तत्पर , धर लो , भर लो , सर लो , चुल्लू कर लो , मर्ज़ी या मजबूरी ? अटकी या भटकी ? जरूर इसके पीछे कुछ छुपा है ! मुरख इंसान कि सोच , अपनी नज़रों से सीमित तिल - तिल सच देख कर तस्वीर बनाती है , और उधर धारा नदी है और सागर होने जाती है , बड़ा होने का शौक है , इसलिये नही . . . ये कोशिश न करने का असर है , बस जुड़ना है , एक होना है , क्योंकि वही सच है , पर इस दौर के इंसान को क्या समझे जो अर्जुनी मुर्खता से विवश है ! अहं का चिकना घड़ा , दुसरों को काट - छाँट के अपने को बड़ा करने में , हर तरफ़ आईने खड़ा करने में कब समझोगे , बड़ने के लिये किनारा लगता है , ...

बादल अनलिमटेड़!

बादल , पागल , चले ज़मीन आसमान एक करने खाई का फ़रक लगे भरने , बेअक्ल या बेलगाम , सुरज की रोशनी को मुँह चिढाते , इतराते , इठलाते , भरमाते , नरमाते , पल - पल उम्मीदों को अजमाते , खड़े रहो कंचनजंघा अहम के साथ इस भरम में कि उंचाई विजय है , और बस एक छोटा सा टुकड़ा , जिसे न अहम है न वहम खोते - खोते होता हुआ , या फ़िर होते - होते खोता हुआ , आपकी झूठी सच्चाईयों को गह लेता है , दो पल के लिये ही सही , मोक्ष - एक पल का ही एहसास है , क्या आपके पास खालिस विश्वास है ?

रास्ते, मुसाफ़िर और कंकड़!

आज हमने एक शहर देखा , उगला हुआ जहर देखा , मुसाफिर बन गुजर गए , हमने कहाँ वो असर देखा कितने रास्ते आज कुछ वीरान हैं ,  मुसाफ़िर तुम आज मेहमान हो , कितने सफ़र उसने कर दिये काबिल , आज समंदर हो गये तुम ओ ' साहिल रस्ते भी हैं और निशान भी ,  यकीं भी है या गुमान ही , नज़र आयेगें खुद को किसी मोड़  पर , बना रखिये पहचान भी . कुछ एक सफ़र , कोई नेक डगर , मासूम असर , मुस्तैद नज़र  कुछ साथ चले , कोई हाथ मिले , कुछ दिल को लगे , ऐसी है खबर ! चलो कुछ ऐसे सफ़र करते हैं , चंद लम्हों कों जिगर करते हैं , उठते रहें कदम यूँही , हम कहाँ  'क्या अंजाम' ये फिकर करते हैं ! कदमों में उम्मीद बंधी है , कोशिशों से रास्ते जुड़े हैं , ज़रा शुरु करिये सफ़र को , यकीन मोड़ पर खड़े हैं ! सफ़र तब्दिली के मुकम्मल नहीं होते ये शौक फ़िर भी जायज़ हैं , दुनिया लगी है सब को उगाने में शुक्र ! सब फ़सल नहीं होते !

जिंदगी ज़हर?

ज़िंदगी सबसे बड़ा ज़हर है, जो भी जिया उसके मरने की खबर है, रेबीज़ है, कुत्ते कि काट से भी ज्यादा घातक, सुना है, जिंदगी एक बार ड़स ले, तो उसका असर, सौ-सौ साल बाद भी नज़र आता है, बचता कोई नहीं, जिंदगी से सबका पत्ता कट जाता है, यानी इंसान दुनिया का सबसे मूरख जीव है, बेइंतहा कोशिश जिंदगी बढाने की, नशे की आदत ऐसी कि बस, 'जीना है, जीना है' की रट है, हम से तो मच्छर, चींटी अच्छे, जानते हैं चार दिन है या और कम,  फ़िर भी बेखौफ़ इतने लगे हैं, अपना आज़ संवारने में, आज भी नहीं - - - अब, इस लम्हे को बना रहे हैं सच के आज़ाद, और पेड़, पौधे जो एक जगह खड़े-खड़े बड़े हो गये, न आगे आने की रेस में दौड़े, न उम्मीद की जो नाउम्मीद छोड़े, न पलायन की कही कुछ और बेहतर है, जंहा थे वहीं के हो गये, ताड़, झुरमुट, बरगद, बबूल, फ़ूल, पाईन, वाईन(बेल) इसलिये नहीं कि इनके बाजु कोई बल गये बस जरूरत थी सो ढल गये, कुछ नहीं तो घांस हो कर चरा गये, दिल बाग-बाग हो गया, पालक मैथी का साग हो गया, अपने छोटेपन का बेचारा नहीं बने चारा बन गये, दूध बन कर...