रिसता
हुआ,
बूंद-बूंद
बूंद-बूंद
मिट्टियों
से सट के,
गोद
भर के,
बिन
ड़र खोते हुए,
किसी
और का होते हुए
पहचान?
खोने
का ड़र है . . . .
.?
आपके
ड़र आपके भगवान होंगे
और उधर वो एक बुंद
और उधर वो एक बुंद
धारा
बनी है,
गुजरने
वालों का सहारा बनी है,
हर
मोड़ बदलने के लिये तत्पर,
चुल्लू
कर लो,
मर्ज़ी
या मजबूरी?
अटकी
या भटकी?
जरूर
इसके पीछे कुछ छुपा है!
अपनी
नज़रों से सीमित
तिल-तिल
सच देख कर
तस्वीर
बनाती है,
और
उधर धारा नदी है
और
सागर होने जाती है,
इसलिये
नही . . .
ये
कोशिश न करने का असर है,
बस
जुड़ना है,
एक
होना है,
क्योंकि
वही सच है,
जो
अर्जुनी मुर्खता से विवश है!
अहं
का चिकना घड़ा,
दुसरों
को काट-छाँट
के
हर
तरफ़ आईने खड़ा करने में
और
बुंद किनारों की मोहताज़ नहीं,
वो अपने आप समंदर है,
वो अपने आप समंदर है,
आप
नही देख सकते क्योंकि
हम
आईनों के बंदर हैं!
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