ऐसी भी क्या जिद्द होती है,
परछाईयाँ जलाने की,
ऐसा भी क्या डर, खोने का,
कि दूसरी सच्चाइयाँ जला दीं,
ऐसी भी क्या जल्दी,
जो दस्तख़ दी,
क़ि करवटें यतीम हो गयीं,

और हम आँख फेरें तो,
सर चढ़ बोलेंगे,
यूँ नहीं की हम दुबक जाएंगे,
फिर ये क्या की पीठ नजरें गढाएंगे,
शाम शामत आएगी ज़ाहिर है,
सच के मौसम बदलेंगे,
पर ये दौर ही ऐसा है,
बदतमीजी, बदलिहाजी, बदसलूकी, बदमाशी,
बदमिजाजी, मौसम बन गए हैं,
रोशनी अपना मतलब भूल गयी है,

इसलिए हुक्मरानों की चांदी है,
फिर भी साँसे ज़िंदा हैं;
सुबह को रात है
बिन मौसम बरसात है,
देख लेंगे हम या नहीं भी,
यकीन की खेती आदत है
इंतज़ार नहीं!
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