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जिंदगी साली मौत की घरवाली

हम को ही हम से छीनता है
ये ज़िन्दगी का कमीनापन हैं!


जिंदगी पर मेरे बड़े एहसान हैं,
कैंसर के बदले मुस्कराहटें दी हैं!

जीने का और बहुत मन है
सिगरेट जैसी बड़ी बुरी लत है!

हमें नहीं लड़नी कोई भी लड़ाई
जिन्दगी अखाड़ा है
ये बात पहले नहीं बतायी!
हाँ नहीं तो!

मौत कितनी पेटू,कितनी अघोरी है,
तमाम ज़िन्दगी सूत के भी भूखी है!


ज़िंदगी हाथ धो के पीछे पड़ती है,
मौत से मिलीजुली साज़िश लगती है

जब देखो बीमारी परस देती है
ज़िन्दगी बड़ी बेगैरत मेज़बान है

ज़िंदगी मौत के बीच इंसाँ फुटबॉल है,
एक ने किक किया दूसरी तरफ गोल है!

कहते हैं शरीर बस आत्मा का खोल है,
पर मूरख आत्मा क्या जाने,
बर्फी चौकोर लड्डू गोल है?


कहते हैं आत्मा अमर शरीर नशवर है
बेईमान सप्लायर है अगर घटिया घर है?


ज़िन्दगी साली मौत की घरवाली निकली,
निकला मतलब तो मुँ पलट के चल दी!!


(उन जुझारुओं की झुंझलाहट को समर्पित जिन्हें अपनी हिम्मत और लगन केंसर जैसी फ़ालतू बीमारियों से लड़ने और उनके रस्ते अड़ने में लगानी पड़ती है)

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