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मार्च, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

क़ाबिल सफ़र!

एक सफ़र के पुरे हो गये, ज़िन्दगी को ज़रा अधूरे हो गए, बाँट आये लम्हे अज़ीज़ कई मोड़, और चंद रिश्तों के मज़बुरे हो गए! अंजान जगह थीं और, हर कोई अपना निकला, सच जो भी आया सामने, सपना निकला! अज़नबी बन बन यक़ीन सामने आते रहे, काम अपना था और अपने काम आते रहे हर लम्हा लोग मुस्कराते रहे, यूँ सब अपनी बात समझाते रहे। अपने इरादों के सब काबिल निकले, हमें उस्ताद कहें ऐसे सब फ़ाज़िल निकले! आ जाइए तशरीफ़ लेकर जब मर्ज़ी, दावत है, सीख़ ही जायेंगे कुछ तो, रवैया है, आदत है और एक सफ़र मकाम हो गया,  मुसाफ़िर का काम आसान हो गया! इतने ठिकाने मिले दिल घर करने को,  अपने से ही हम ज़रा बेगाने हो गये! अधूरे फ़िर अपने फ़साने हो गये,  कुछ वो बहके कुछ हम दीवाने हो गये!

बुरा मानो कि होली है!

सरकार की लाठी बोलती है,  नौज़वानों से वृंदावन होली खेलती है,  हैदराबाद में सरफ़ुट्टवल करके,  आज़ादी के खून से खेली है, बुरा न मानो होली है! नदी नीयत सब सूखी है,  जमीन प्यासी है, भूखी है,  किस तरह की जिद्द है, फ़िर, "बुरा न मानो होली है?" बुरा न मानो, गोली है,गाली है, घूंसे-लात, गिरेबां में हाथ, होली है, दहेज़ में बोली है, मर्दों की दुनिया में औरत, जलती है, और बड़बोली है! बुरा न मानो, प्रजा बड़ी भोली है, भक्त है, और ख़ाली इसकी झोली है, लगे है सब इसमें इश्तेहारी सपने भरने, कौन देखता है की आज़ादी की होली है? बुरा न मानो चोली है,  चरित्र-ए-मरदुए की होली है,  नीयत से आज़ाद है,  ये किशन की बोली है,  नारायण, नारायण! बुरा न मानो मौसम गर्म है,  आग सी लगी है, बदन में,  ठंड़ा करने का कोई मर्म है,  मर्द को शरीफ़ साबित करना धर्म है!

भारत माँ की.....

भारत माँ की बेटियों को पेट में मारा जाता है, जय भारत माँ की जमीं पर जीवन उगाने वाले आत्महत्या कर रहे हैं, जय भारत माँ की, साँसे फूलती हैं तरक्की के धुँए से, जय भारत माँ की, औकात एक मज़हब, एक भाषा तक सिमटा दी, जय भारत माँ की, बेटियां बाज़ार में जिस्म बेचती है, और बेटे खरीद रहे हैं, जय भारत माँ की, ठेकेदारी, गुंडों के हाथ पड़ गयी है, जय भारत माँ की, इंसानियत एक जात है, यहां पैदा होना अपघात है, जय भारत माँ की, रसोई एक अखाडा है, गाय ने इंसान को पछाड़ा है, जय भारत माँ की, शिराएँ (नदीयाँ) श्री नाला बनी है, शंकर को रवि का श्राप लगा है, जय भारत माँ की, औलादें, सड़क किनारे और स्टेशन प्लेटफॉर्म पर बीड़ी मारती और डंडे खाती हैं, जय क्या आप को अब भी लगता है? भारत एक माँ है? या ये कहना गुनाह है? आपकी भी जय!!

अंदेशा...अंदाज़न...अमूमन!

कभीकभार, सवाल, पूछिये, आइनों से, इंतज़ार करिये! कभी यूँ ही, कभीकभार, कभी हांसिल कभी दुश्वार! कभीकभार, एक आहट, एक ख़ामोशी, एक इंतज़ार कभीकभार! कभीकभार, रातदिन और दिनरात, वही ख्याल कभीकभार! कभीकभार, देखलीजे, गौर से, क्या सवाल? कभीकभार, एक सपना एक हकीकत कभीकभार! कभीकभार, सवाल एक, एक ही सवाल, कभीकभार! कभीकभार, रास्ते, एक सवाल, एक मोड़, कभीकभार! कभीकभार एक सवाल और हम कभीकभार! कभीकभार, हम और सफ़र, हमसफ़र, कभीकभार कभीकभार, हरदम, कभीकभार!

जय जय श्री शंकर !

यमुना का किनारा, मजबूर बेचारा जहाँ न पहुँचे कवि, इतनी बदबूदार छवि, वहाँ पहुँचे शंकर, काँटा लगे न कंकर, इसलिये जेसीबी चलवा दिये धरा को धमका के समतल बना दिये प्याला धरम का पिया, थोड़ा सरकार को दिया, थोड़ा जज ने भी चखा,    अल्लाह के नाम पे दे दे बाबा जो दे उसका भला, वरना किसान जैसे फ़ंदे को गला, मैं गिर जाउंगा, उठ न पाउंगा जो तूने मुझे थाम न लिया, ओ सौ सेना का गरेबाँ पकड़ा और उन्हीं की पीठ पे चल दिया, एक के दो दो के चार मुझको क्यों लगते हैं, ऐसा ही होता है जब दो श्री मिलते हैं, उपर राम नीचे संघी घमासान, हो सौ रबड़ी, जलेबी घी की,   ओ संघी भैया, आओ आओ, ओ मेरी उमा, बड़े जतना से गयी भैंस पानी में रे कंधे पे, सर रख के, तुम मुझको खोने दो, अपनी है, सरकारें, जो चाहे होने दो, मीड़िया वालों को मुस्करा के कह दो तुम कितने नादान, कितने कच्चे, तुम्हारे कान, हो सौ खबरी,   दो दिन पहले, एनजीटी का, माल-या खुदा, कहाँ से लायेंगे, छोड़ो जी, ये सब तो, सरकार से ही दिलवाएंगे कुछ भी हो लेकिन मज़ा आ गया नरिंदर अरविंदर सब अपने जाल, राम के नाम शंकर का कमाल! अब देखिये जिंदगी की कला का ...

मुमकिनियत!

बचपन में बड़ों के हाथ मनमारते, अब खुद की हद के ख़त्म होते हैं, खुद से जिद्द क्यों नहीं कर लेते, क्यों आप दुनिया को हज़म होते हैं! इतना भी एक रस्ते न चलिए, के खत्म हों पर खबर न हो?    अपने ही जख़्म हुए जाते हैं, क्यों यूँही ख़त्म हुए जाते हैं!    अपने ही आइनों से सब शिकायत है, क्यों खुद को ही ख़त्म हुए जाते हैं! नसीहतें तमाम कुछ न करने की, नेक इरादों के खत्म हुए जाते हैं! नेक नसीहतें आपके रस्ते आती हैं, और आप शराफ़त के खत्म होते हैं?   पहचाने रास्तों पर सफ़र नहीं होते, अपनी ही चाल के हम ख़त्म होते हैं हर मोड़ किसी से मिल लीजे, ज़िंदगी अजनबी है, संभल लीजे? आग़ाज़ कुछ नहीं ख़त्म होने की बात है, उनसे पूछिये जिनको सिर्फ दाल भात है!   बड़े हुए हाथ सहारा भी होते हैं, आप क्यों शक के ख़त्म हुए जाते हैं! ज़िन्दगी से शिकायत नहीं की जाती, अपने ही हाथों से खत्म क्यूँ होते हैं? सपने में तो आप के भी रंगी पंख होंगे, क्यों अपनी हकीकतों के ख़त्म होते हैं?

मैं ना मर्द!

 मैं एक का था और वो २५ की,  नज़दीकी मैंने तभी सीखी,  मैं पाँच का था और  वो उन्तीस की,  तब पता चला कि किसी को जीतने के लिये, किसी को हारना पड़ता है,  इंसान बनने की यही शुरुवात थी मैं पन्द्रह का था और वो अठाहरा की,  वो आगे रहती थी,  अपने यकीनों पर जीती थी मर्द नहीं बनने की मेरी यही शुरुवात थी मैं इक्कीस का था वो चौबीस की थी,  आंटा माड़ना, रोटी गोलना और  ज़िंदगी के पापड़ बेलना  तब मैनें देखा था,  काम का कोई लिंग नहीं होता,  ये समझ यकीन बनने की ये शुरुवात थी मैं तेईस का था और वो सब २०, २१, २२ की रोज की बातें, नये सच से मुलाकातें, होमोसेपियन से आगे जँहा और भी हैं,  कंधों को मिलाना मैंने यहीं सीखा था, ये मेरी नज़ाकत की शुरुवात थी मैं छब्बीस का था और वो चौबीस की,  उसको रोमांच था और मैं तो था ही,  मैं सोच था वो यकीन थी, जितनी ज़हीन उतनी हसीन, अपने आप में तय,   साथ से अलग, लिये अपने फ़लक, मेरी दुनिया की पहली औरत,  जिसे संपूर्ण होने के लिये मां ...

धीरे धीरे ... और खत्म?

 आप धीरे धीरे खत्म होते जाते हैं, अगर आप सफ़र को नहीं जाते हैं, अगर आप कुछ बांचते नहीं, ज़िंदगी को उसकी आवाजों से भांजते नहीं, आईनों में अपनी तस्वीर को मांजते नहीं  आप धीरे धीरे अंत हो जाते हैं, जब आप अपनी मान्यता मारते हैं अपनी तरफ़ बड़े हाथों को नकारते हैं, आप धीरे धीरे खत्म हो जाते हैं, अगर आप आदतों से अपने को बांधते हैं, रोज वही लकीर पीटते हैं - रोज के सधे हुए दिन को साधते हैं, अगर आप नये रंगो को नहीं पहनते, किसी नये को नहीं चीनते, आप धीरे धीरे काफ़ूर हुए जाते हैं, अगर आप दीवानेपन से कतराते हैं, और उसकी रवानगी से, जो आपकी आँखों को नम करती है, दिल की धड़कनों को चरम करती है,  आप धीरे धीरे नासूर हुए जाते हैं अगर आप अपनी ज़िंदगी नहीं बदलते उस वक्त ज़ब आपको, आपका काम नहीं चलता, रिश्ते में दिल नहीं पलता और आपको अपना माहौल नहीं फ़लता अगर आप अपनी यकीनी को जोखिम नही सिखाते, उसके लिये जिसका कोई ठिकाना नहीं, अगर आप किसी सपने का साथ नहीं देते, अगर आप ज़िंदगी में कम से कम एक बार, अपने को ये इज़ाज़त नहीं देते, कि भाग खड़ॆ हो नेक नसीहतों से - पा...