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भीड़ की रीड!

सवाल?  क्यों लोग लगे रहते है दिन भरने में,  रोज़-रोज़ वही करने में जिसमें जी नहीं? ये कहते हुए कि ये ज़िंदगी का सच है,  गुजारे की demand - too much है? क्या उऩ्हें मजबूर करता है? अपने अंतर से दूर करता है? क्यों ये सवाल? क्यों वक्त के मारों के जख्म पर नमक छिड़क रहे हो मेरे भाई ? चल रहे हैं वही जिंदगी ने जो राह दिखाई , आप ने सपनों को रास्ता बना लिया , अपनी मुश्किलों का नाश्ता बना लिया , आईने के सामने खड़े होकर सिर्फ़ अपनी खूबसूरती या  उसकी कमी को परखने कि जगह , आपने सवाल पूछ लिये ? तो लो अब भुगतो , अब आपको जिंदगी मज़े से जीनी पड़ेगी , कभी आप भी परेशानियों से अपना सर खुजाएंगे , ( तेल क्यों नहीं लगाते हीरो ) पर फ़िर भी मुस्काराऐंगे , आपने अपने सपनों को पालना सीखा है , पर घर और स्कूल में उनको टालना सिखाते हैं , और जरूरतों का क्या बतायें , उसकी परिभाषा कहां से लायें , देखो तो , लाखों हवा खा कर भी जिंदा हैं ? सवाल लाख टके का है ? ताकत किसके हाथ में है ? " कौन कहता है कि चक्की में पिसे रहो ?" घर - बाहर , स्कू...

अंदाज़-ए-आतिशबाज़ी!

इस दीवाली के पटाखों को, कोई नयी गाली हो जाये, माँ-बहन की जगह राम-लखन की विवेचना की जाये! दीवाली आने वाली है,  ये आज की गाली है, मजहबी गुंगे क्या समझें,  क्यों कोई सवाली है? सीता को पूछे कोई कि कैसे राम निकले, सब के सब  कानों के अपने हराम निकले ! अक्ल गलियों मे जल रही है,  बेशर्मी हर दौर पल रही है, गरीबी एक जुंए का खेल है,  सच्चाई जाम में ढल रही है! कस के दो-चार गाली हो जाये,  अपनी भी दीवाली हो जाये, बड़े आये मुबारक कहने,  गीली पटाखे कि थाली हो जाये! :-P एक एक पटाखा मां-बहन की गाली है, आपकी फ़ुलझड़ी किसी कि बेहाली है सारे अनार किसी के रस्तों की दीवार, दीवाली मना रहे है या दिमागी बीमार? चल रही है चारों और अतीत की हम्माली, और हम पर ये इल्ज़ाम की दीवाली पर गाली!

इस दीवाली मीठे से बचिये . . .

एक महीन से कपड़े के अंदर छूपी हैं, मिठाईयाँ और तमाम बेशरम सच्चाईयां! अगर दम है तो नये सिरे से भी सीखो, पत्थर की लकीरें, दरारें भी होती हैं! परंपरा है बस इसलिये करते हैं, दिमाग की प्रोग्रामिंग(Programming) कहां करते हैं? रॉकेट हो गये सारे सपने, उम्मीदों को सुतली बम, धूल बनी सारी रंगोली, अब आगे क्या बोलें हम! एक दीवाली है और दो आपके कान हैं, आज तो बेहरा होना वरदान है! लगे हैं स ब दिन को सुलगाने में, यूँ हो रही हैं तमाम रातें‌ रोशन! आवाज़ें ईतनी कि बहरों के कान खुल जायें, फ़िर भी आपके कानों पर जूँ नहीं रेंगती! लड़ी पटाखों की और झड़ी अहमकों कि, बदसलूकी, बदनियती के मौसम बने हैं! कहते हैं देर होती है, अंधेर नहीं,  पर रोशनी ही गंदी हो तो क्या?

बूंद बूंद सफ़र!

पानी पहाड़ों का , रिसता हुआ , बूंद - बूंद मिट्टियों से सट के , तिनकों से लिपट के , हर कण को तर के , गोद भर के , बिन ड़र खोते हुए , किसी और का होते हुए पहचान ? खोने का ड़र है . . . . .? आप जरूर इंसान होंगे ! आपके ड़र आपके भगवान होंगे और उधर वो एक बुंद धारा बनी है , गुजरने वालों का सहारा बनी है , हर मोड़ बदलने के लिये तत्पर , धर लो , भर लो , सर लो , चुल्लू कर लो , मर्ज़ी या मजबूरी ? अटकी या भटकी ? जरूर इसके पीछे कुछ छुपा है ! मुरख इंसान कि सोच , अपनी नज़रों से सीमित तिल - तिल सच देख कर तस्वीर बनाती है , और उधर धारा नदी है और सागर होने जाती है , बड़ा होने का शौक है , इसलिये नही . . . ये कोशिश न करने का असर है , बस जुड़ना है , एक होना है , क्योंकि वही सच है , पर इस दौर के इंसान को क्या समझे जो अर्जुनी मुर्खता से विवश है ! अहं का चिकना घड़ा , दुसरों को काट - छाँट के अपने को बड़ा करने में , हर तरफ़ आईने खड़ा करने में कब समझोगे , बड़ने के लिये किनारा लगता है , ...

बादल अनलिमटेड़!

बादल , पागल , चले ज़मीन आसमान एक करने खाई का फ़रक लगे भरने , बेअक्ल या बेलगाम , सुरज की रोशनी को मुँह चिढाते , इतराते , इठलाते , भरमाते , नरमाते , पल - पल उम्मीदों को अजमाते , खड़े रहो कंचनजंघा अहम के साथ इस भरम में कि उंचाई विजय है , और बस एक छोटा सा टुकड़ा , जिसे न अहम है न वहम खोते - खोते होता हुआ , या फ़िर होते - होते खोता हुआ , आपकी झूठी सच्चाईयों को गह लेता है , दो पल के लिये ही सही , मोक्ष - एक पल का ही एहसास है , क्या आपके पास खालिस विश्वास है ?

रास्ते, मुसाफ़िर और कंकड़!

आज हमने एक शहर देखा , उगला हुआ जहर देखा , मुसाफिर बन गुजर गए , हमने कहाँ वो असर देखा कितने रास्ते आज कुछ वीरान हैं ,  मुसाफ़िर तुम आज मेहमान हो , कितने सफ़र उसने कर दिये काबिल , आज समंदर हो गये तुम ओ ' साहिल रस्ते भी हैं और निशान भी ,  यकीं भी है या गुमान ही , नज़र आयेगें खुद को किसी मोड़  पर , बना रखिये पहचान भी . कुछ एक सफ़र , कोई नेक डगर , मासूम असर , मुस्तैद नज़र  कुछ साथ चले , कोई हाथ मिले , कुछ दिल को लगे , ऐसी है खबर ! चलो कुछ ऐसे सफ़र करते हैं , चंद लम्हों कों जिगर करते हैं , उठते रहें कदम यूँही , हम कहाँ  'क्या अंजाम' ये फिकर करते हैं ! कदमों में उम्मीद बंधी है , कोशिशों से रास्ते जुड़े हैं , ज़रा शुरु करिये सफ़र को , यकीन मोड़ पर खड़े हैं ! सफ़र तब्दिली के मुकम्मल नहीं होते ये शौक फ़िर भी जायज़ हैं , दुनिया लगी है सब को उगाने में शुक्र ! सब फ़सल नहीं होते !

जिंदगी ज़हर?

ज़िंदगी सबसे बड़ा ज़हर है, जो भी जिया उसके मरने की खबर है, रेबीज़ है, कुत्ते कि काट से भी ज्यादा घातक, सुना है, जिंदगी एक बार ड़स ले, तो उसका असर, सौ-सौ साल बाद भी नज़र आता है, बचता कोई नहीं, जिंदगी से सबका पत्ता कट जाता है, यानी इंसान दुनिया का सबसे मूरख जीव है, बेइंतहा कोशिश जिंदगी बढाने की, नशे की आदत ऐसी कि बस, 'जीना है, जीना है' की रट है, हम से तो मच्छर, चींटी अच्छे, जानते हैं चार दिन है या और कम,  फ़िर भी बेखौफ़ इतने लगे हैं, अपना आज़ संवारने में, आज भी नहीं - - - अब, इस लम्हे को बना रहे हैं सच के आज़ाद, और पेड़, पौधे जो एक जगह खड़े-खड़े बड़े हो गये, न आगे आने की रेस में दौड़े, न उम्मीद की जो नाउम्मीद छोड़े, न पलायन की कही कुछ और बेहतर है, जंहा थे वहीं के हो गये, ताड़, झुरमुट, बरगद, बबूल, फ़ूल, पाईन, वाईन(बेल) इसलिये नहीं कि इनके बाजु कोई बल गये बस जरूरत थी सो ढल गये, कुछ नहीं तो घांस हो कर चरा गये, दिल बाग-बाग हो गया, पालक मैथी का साग हो गया, अपने छोटेपन का बेचारा नहीं बने चारा बन गये, दूध बन कर...

सज़ा-ए-मौत!

ताज़ीराते हिंद कहती है सज़ा - ए - मौत है , एक मरता है या इंसानियत की मौत है ? शराफ़त का नया धंधा वसूली है , गुनाह मोटा है कहते हैं सूली है , हाथ अपने खड़े हैं, पर किसी और को फ़ाँसी है , एक ताकत को सज़ा है और, एक को माफ़ी है ? कहते हैं सबक सिखाना जरूरी है , कौन सी शिक्षा रह गयी अधुरी है '? लगता है जैसे कोई मज़बूरी है , फ़िर क्यों इंसा होना जरूरी है ? सुधार नहीं सकते तो सिधार तो , कर्ज़ भारी है जिंदगी उधार लो ! ड़र मौत का रोक देगा गुनहगार को , जैसे रेड़ लाईट रोकती है कार को ? सारे तज़ुर्बे यहीं के , सारी सोच यहीं से , अब कटघरे खड़ी है क्यों नहीं देखते फ़ैसला देने वालों  हैवानियत यहीं पली बड़ी है ?   

उस्ताद शबाना!

ये शबाना है , हिम्मत , लगन को दुनिया में रहने का बहाना है , मुश्किल है फ़िर भी मुस्कराना है , कल की बात बेमानी है , आज़ को आज़ ही सुलझाना है , और तरीके अपने , (मक्का मस्ज़िद, हैदराबाद में शबाना अन्य महिलाओं को ऐरोबिक्स करा रही हैं)‌ ( दुसरी क्लास में शबाना स्कूल छोड़ दी क्योंकि उऩ्हें टीचर से इज़्ज़त नहीं मिली ) दुनिया तो हर तरीका आज़मायेगी , (बुरके की परिभाषाओं को बदलते हुए शबाना) कभी फ़ुसलायेगी , कभी ताकत आज़मायेगी , कभी नाउम्मीदी के सपने दिखायेगी , पर ये दाल यहां नहीं गलेगी , कुछ करना है , नया ही सही , ड़रने कि लिये पूरी जिंदगी पड़ी है , (13-14 साल की उम्र में शबाना अपने को 16 मानकर / जानकर प्ले फ़ॉर पीस ( www.playforpeace.org ) कि सदस्य बनीं और पुराने हैदराबाद की संकरी गलियों में बच्चों को मुस्कराने , हँसाने लगी !) गुड़मॉर्निंग , फ़ोलो मी जैसे कुछ लफ़्ज़ बोल इंग्लिश मीड़ियम स्कुल में भी जानी जाने लगी , ड़र तो था , पर अपने से मुहब्बत कैसे छोड़ दें , हर एक मकाम पर आकर भी , “ बस अब एक और सपना है " सोच ने रोक...