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गज़ल निस्वां !

इस ज़माने के ये चलन निराले हैं, 
मर्द सारे गम के गीत गानेवाले हैं? 
                                    
इकारार की इल्तज़ा और जोर,
ता-ज़िन्दगीं साथ निभाने वाले हैं?

आदम की दुनिया है, समझे हम,
हव्वा है हम दिल बहलाने वाले हैं!

जो भी निशान हैं हमारे जिस्म पे,
कौन अपनी पहचां बताने वाले हैं?

रगों में खून है ओ दिल धड़कन है,
कौन सुनता किसको सुनाने वाले हैं?

बेटी, बहन, बहू, मां, सब जली हैं,
हम कब इनके रास्ते आने वाले हैं?

दो चार हाथ ही तो मारे हैं,
बाद में चांद-तारे लाने वाले हैं!

न जमीं, न ही आसमां अपना है
कहां इस दुनिया से जाने वाले हैं?

बहुत् शरीफ़ हैं वो कैसे भूलाएं
उनके एहसान सब गिनाने वाले हैं,

हम फ़क्त अपने सपनों के बांझ है,
गुड़्डे-गुड़िया खेल पुराने वाले हैं!
 

हमारे अफ़सानों का भी दौर हो,
दुनिया से मर्द कब जाने वाले हैं?

बात उनकी थी अज्ञात ये तो,
कौन किसको बताने वाले हैं?

(गज़लों के बारे में सोच रहा था, और गाने वालों के बारे में, ज्यादातर मर्द, अपने दर्द की हंसी दास्तां बयान करने वाले। मन में ये सवाल आया कि मर्दों कि दुनिया में मर्दों के दर्द बकते भी हैं और बिकते भी हैं। गणित कहती है, और हक़ीकत भी के मर्द-औरत के रिश्तों में, प्यार - मोहब्बत के बारे में अगर औरतों को अपना अफ़साना कहना पड़े तो, वो सच्चाई हसीन नहीं होगी, वो अगर सच में अपनी बात कहें तो क्या कहेंगी? सोचा सो लिख दिया, ये दावा बिल्कुल नहीं कर रहा कि मैं औरतों का दर्द समझ गया, पर कोशिश तो की है)

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