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जून, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बंजारियत!

आज सुबह की दौड़, बेजोड़, नयी शक्ल हर मोड़, और दौड़ ज़िन्दगी, कोई फुर्रर्रर कोई खिरामां खिरामां, सोचने का वक्त नहीं, किसी को, और कोई मगन है ख्यालों में, कोई सेहत के लिए भागता है, और कोई नेमत को, और काफ़ी अपनी कीमत को, और समंदर दूर से, बारीख़ी से, कुछ नहीं कह रहा, अगर आप सुन पाएँ, तो समझेंगे, सच कुछ नहीं है, बस आपकीं राय है!

घुम्मकडियाँ!

इतिहास का इरादा क्या था? यूँ खड़े होकर, सरचढ़ बोलते, अपनी कहानी कहता है या मुँह चिढ़ा रहा है हमको? तुम ने कौन सा तीर मार लिया? अदना बन कर खड़े हो? हमारे साथ सेल्फ़ी लेते, लोग तुम्हें शायद लाइक करें?

जुनैद की टोपी का कत्ल!

बस एक टोपी ही मुसलमान थी, उसके नीचे तो मैं पूरा इंसान था? क्या देखा आपने के मेरा इंसान तो दिखा नहीं, अपनी इंसानियत भी नज़र नहीं आयी? आपके ज़हन ने कैसी मेरी तस्वीर बनाई? वो आपकी आँखों का सुर्ख रंग, मेरा बिखरा हुआ खून कैसे बन गया? क्या बात हुई आपके दिल और दिमाग में? पहली बार कत्ल किया या, है ये आपके मिज़ाज़ में? आप भीड़ थे या  उस नफ़रत की रीढ़ थे? मैं समझ नहीं पाया यूँ पूछता हूँ? मुझे तो आपका इंसान नज़र आया, मैंने हाथ जोड़ कर ये इरादा फ़रमाया, पर माहौल इतना क्यों गरमाया? क्यों इतनों का इरादा भरमाया? क्या आपने नफ़रत पाली है? इतनी फल-फूल कैसे गयी? ये कैसी आँखों में धूल गयी? और आप कहते हैं आपने हाथ नहीं उठाया? और आवाज़? आपकी खामोशी मासूम थी? या डरी हुई? या अपनी ही नज़रों से गिरी हुई? गलत हो रहा है? आपको एहसास था? क्या ख़ाक था? बस एक आख़िरी सवाल है, मैं तो मुसलमान था फिर, मेरे कत्ल से भी "राम नाम सत्य" हुआ क्या? चलिए आपको आपका सच मुबारक हो!

गुस्सा सवालिए!

मैं उदास हुँ हताश नहीं, गुस्सा पाल नहीं रहा, सवाल रहा हूँ, मैं हाल हूँ या हालात? खबरों में खुद से होतीं नहीं मुलाकात, नफ़रत का हर तरफ़ बवाल, कोई मज़हब जल रहा है, और कोई धर्म जला रहा है! जो ज्यादा है वो भीड़ हैं, जो कम हैं वो कम पड़ रहे हैं! इंसान अब इंसानियत से लड़ रहे हैं! और वातानुकूलित सच वालों को यकीन है, के इस दौर में हम आगे बढ़ रहे हैं!

मजबूर नफ़रत

अपनी जंग के सब मजबूर हैं, सच्चाई के कौन जी-हुज़ूर हैं? गुस्से में इतने के खुद से दूर हैं, कैसी मुल्कीयत के पाकिस्तान ज़रूर है? आवाज़ अलग है तो उसको जला देंगे, कौन इंसान जिसको खून जरूर है? नफ़रत के कितने सब मंज़ूर हैं, क्या कीजे के आदमखोर हुज़ूर हैं! सच छुप जाए यूँ के हम मग़रूर हैं, डरी हुई आवाम को छप्पन जरूर है! इंसान ही इंसान को काफ़ी पड़ेगा, कौन कहता है क़यामत जरूर है? लाज़िम है के खामोशी एक राय है, कुछ तो इशारा हो के नामंजूर है? दूध का रंग सुर्ख नज़र आता है, क्यों रगों में आज इतना सुरूर है? मूरख गिन रहे हैं अपने और उनके, आख़िरकार इंसान को इंसान जरूर है!

महाज़िर!

बस मौजूद हैं, इतना ही वुजूद है, उनका, उनकी छिन गयी सरहदें सारी, बस एक पहचान, महाज़िर इंसानियत तमाम मौज़ूद, फिर भी सिर्फ महाज़िर, हर क़तार में आख़ीर आख़िर क्यों? और अब तमाम हरकतें, दुनिया का ज़मीर, और एक केंप, क्योंकि वो इंसान हैं, आख़िरकार! क्या है पहचान? वो जो बनाती है? आपको, एक मज़हब, एक जात, एक इलाक़ा, एक सोच, और फिर एक से दो, और फिर दो-दो हाथ! कोई बेहतर, कोई बरबाद! पहचान जब हो, क्या इंसान फिर भी है? आप कौन है? मददग़ार? या अपने ज़मीर के गुनहगार आप भी मौजूद हैं!

क्या समझें!

नाइंसाफ़ी है,   दुनिया में काफ़ी है,  बिखरते सपने,  टूटते इरादे, और,  खुद से ही वादे,  कुछ आँसू,  कुछ मुस्कानें,  थॊड़ी मायूसी,  फ़िर भी ज़ीना कम नहीं करते,  हर दिन एक ज़ंग है,  और वो जीत रहे हैं,  खाली हाथ! (आभा का एथेंस, ग्रिस से संदेश जहाँ वो रिफ़्युज़ी केंप मे काम कर रही थीं, - ........so many stories of struggle and individual trimuphs, smiling faces of young people.... some frustrated.....some crying...but stull winning at the everyday game of life in some way....so f'ing unfair... क्या समझें? कोई घर है,  और कितने बेघर,  बेदर,  कोई मुसाफ़िर,  समंदर किनारे,  तंबू घर में रात गुजारे,  और कई मेज़बान,  दिल खोल,  कहते हैं,  "मी कासा इज़ तू कासा"* क्या नहीं है ये इंसनियत कि भाषा? हम सीख  रहे हैं या भूल रहे हैं? बोल रहे हैं कितने पर,  कितने दरवाज़े खोल रहे हैं? (...so many people have to go through this....can't make sense of this. There are some people ...

एक बूँद समंदर!

समंदर एक नज़रिया है,  बूँद एक ज़रिया,  बूँद ही इरादा है,  कोशिश है,  बेचैनी,  तलाश, काश! समंदर को फ़र्क पड़ा है! क्या देखिए? आखिर वो एक बूँद है! और एक, और एक,  'सिर्फ़ एक' नहीं, "पूरी एक" बूँद का सफ़र ही है,  समंदर का असर,  मकाम कुछ नहीं, बस! रह गयी कुछ कसर,  रोका किसने? करते रहिए सफ़र! बूँद ही समंदर है,  बाहर नहीं आपके अंदर है,  सोगवार क्यों? बेकरार रहिए! और थोड़ा,  बेसब्र,  ऐसे ही बूँद, दरिया,  और दरिया समंदर होता है! (आभा जेउरकर और अज़ात शत्रु पिछले ३ हफ़्तों से एथेंस, ग्रीस में रिफ़्यूज़ी युवाओं के साथ काम कर रहे है, अब लौटने का वक्त आया है और आज सुबह सुबह आभा का ये संदेश मिला, बस लफ़्ज़ सफ़र पर निकल पड़े, Abha - ".... at least I felt like I could do my best, knowing fully well that it is just a drop in the ocean. ")