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मजबूर नफ़रत

अपनी जंग के सब मजबूर हैं,
सच्चाई के कौन जी-हुज़ूर हैं?

गुस्से में इतने के खुद से दूर हैं,
कैसी मुल्कीयत के पाकिस्तान ज़रूर है?

आवाज़ अलग है तो उसको जला देंगे,
कौन इंसान जिसको खून जरूर है?



नफ़रत के कितने सब मंज़ूर हैं,
क्या कीजे के आदमखोर हुज़ूर हैं!

सच छुप जाए यूँ के हम मग़रूर हैं,
डरी हुई आवाम को छप्पन जरूर है!

इंसान ही इंसान को काफ़ी पड़ेगा,
कौन कहता है क़यामत जरूर है?


लाज़िम है के खामोशी एक राय है,
कुछ तो इशारा हो के नामंजूर है?

दूध का रंग सुर्ख नज़र आता है,
क्यों रगों में आज इतना सुरूर है?

मूरख गिन रहे हैं अपने और उनके,
आख़िरकार इंसान को इंसान जरूर है!

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