
इतना ही वुजूद है,
उनका, उनकी
छिन गयी सरहदें सारी,
बस एक पहचान,
महाज़िर
इंसानियत तमाम मौज़ूद,
फिर भी
सिर्फ महाज़िर,
हर क़तार में आख़ीर
आख़िर क्यों?

और अब तमाम हरकतें,
दुनिया का ज़मीर,
और एक केंप,
क्योंकि वो इंसान हैं,
आख़िरकार!
क्या है पहचान?

आपको, एक मज़हब,
एक जात, एक इलाक़ा,
एक सोच,
और फिर एक से दो,
और फिर दो-दो हाथ!
कोई बेहतर, कोई बरबाद!
पहचान जब हो, क्या
इंसान फिर भी है?

आप कौन है?
मददग़ार?
या अपने ज़मीर के गुनहगार
आप भी मौजूद हैं!
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