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बचपन और कश्मीर?


रूह कांप जाती है,
ये सोचकर के अगर
मेरा बचपन कश्मीर होता?
शायद,
मेरा आज कोई और शरीर होता!
पैलेट से सुसज्जित,
मेरा चेहरा होता,
आख़िर,
पत्थर मैंने भी उठाए हैं,
फेंके भी हैं,
बड़ा मासूम था मैं?
गुस्सा तो था नहीं,
न कोई परेशानी,
बस कुछ होने की आसानी,
जैसे एक खेल था,
चलती हुई बस,
एक पत्थर,
सरकारी मुलाज़िमों की बस्ती,
सुरक्षित हस्ती!
आज मैं शांति-अमन हूँ,
और वो बच्चे?
जिनकी लोरी कदमताल है,
और तलाशी, सुबह की लाली?
जिनसे सवाल बन्दूकें करती हैं,
और ज़वाब कोई भी सही नहीं!
उनके हाथ के पत्थर क्या होंगे?
सवाल?
ज़वाब?
बयान?
मलाल?
ख़याल?


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