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संदेश

अक्तूबर, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मोड़ के जोड़ तोड़!

उम्मीद को आसमान नहीं लगता, मुसाफिर को सामान नहीं हालत को क्या इल्ज़ाम दें, गर जज़्बे को जान नहीं   अभी लौटे हैं और चलने की सोचते हैं मेरे सफर ही मेरा रास्ता रोकते हैं अब रुके हैं तो हम मुसाफिर कुछ कम नहीं होते    साहिल को छु कर आते धारे नम नहीं होते  हर चलना सफर हो तो क्या?  रास्ता न रुके तो कहाँ ? मुसाफिर कोई रास्ता नहीं बना, चलते चलते तुम्हारे कदमों ने इसे बुना,  मंजिलों को क्या तलाशते हो,  वहीँ पहुंचोगे जो तुम्हारे क़दमों ने चुना गुजरना कोई अंत नहीं, सफर कोई अनंत नहीं,  काफिले हर मोड़ मिलेंगे, अपने आँसू काबुल हों  सब उड़ते हुए पंछी आज़ाद नहीं होते आसमान को इरादे लगते हैं युहीं कोई सफर मुकम्मल नहीं होता सफर में मुश्किलों के अँधेरे लगते हैं

गफलत ए हालात!!!!

आवाज़ गूंजती है परदे पड़ी दीवारों पर, मर्ज़ जाहिर है नज़र अंदाज़ बीमारों पर बदलती करवटें, बैचैन सलवटें, रात अपने आगाज़ पर है खामोश होते और चंद लम्हे , आज अपने आगोश में है मदहोश लम्हों तुम हमसे ज़रा दूर ही बैठो बहकने के दिन कहाँ, जिदंगी जरा होश में है होश में है जिंदगी, जाने कहां-कहां भटकायेगी, क्या खबर, ये मुलाकात खुद से, रास आयेगी? सवालों की कवायत है या कारवां ए इनायत है ? दम टूटेगी या फ़क्त जहन की हरारत है ? इरादतन कुछ कह दिया, या ख़ामोशी ए क़यामत है कलम से इश्क है या लफ़्ज़ों की शहादत है खोने में मशरुफ़, या होने को मजबूर, अपनों के पास नहीं, और अपने से दूर जो कहा है कहीं भी उस में, मैं कहीं जरुर हुँ होने को मशकूर हुँ , या न होने को मशहुर? आज भी "मैं" ही हूँ, अपनी अभिव्यक्ति में कैद, अपने जज़्बातों से क़त्ल, अपने अंदर ही मृत (जिंदगी के समंदर से इकट्ठे किये शंख, सीपी, इत्यादि इत्यादि )

इतिहास्य

विकास का इतिहास है उसकी बुनियाद, अनगिनत इंसानों की लाश है दफनाए हुए, सच कहने को "काश" है नाम – सभ्यता पता – आधुनिकता उम्र – सदियाँ बीत गयीं इतिहास गुलाम है चंद हाथों में उसकी लगाम है जो बुनियाद बन गए उनकी प्राथमिकता(F.I.R.)दर्ज नहीं, जो कमज़ोर थे, उनकी बात आज़ न करें तो हर्ज नहीं तलवार सर कलम करती है समझदार को इशारा काफी सच्चाई हमेशा हुकूमत को सर करती है, आप को अपने इतिहास पर, परंपरा पर गर्व है जाहिर है आपकी जिंदगी पर्व है, आप को क्या इल्म है लालच, वहशियत, पागलपन, जुल्म, जब इतिहास के पन्नों पर चड़ते हैं तो समृद्धि, वीरता, दूरदर्शिता, न्याय कहलाते हैं, आपका दिल बहलाते हैं इतिहास गवाह है, कितनी भी परंपरा की वाह-वाह है, हम आज भी वही इंसान है लालच, जुल्म, वहशत, अब भी हमारी शान है, मुबारक हो ! भ्रष्ट समाज की सूचि में अपना ऊँचा स्थान है!

मैं – हिंसा!

"मैं" हिंसा हूँ  कितनी करूँ कोशिश नज़र नेक नहीं होती भांप लेती है, आँक लेती है, "फर्क" कितना भी सर छुपाए उन्हें नाप लेती है "फर्क" है तो दोष है रोष है ! तैयार होता हिंसा का शब्द कोष है, कम है, ज्यादा है वादा, इरादा, फ़रियाद, बंटवारा आकांक्षा, अभिलाषा, ढाढ़स, दिलासा "मैं" अतीतयुक्त है  कब "मैं" रिक्त होगा "आज" में जीने को मुक्त होगा (जे.कृष्णमूर्ति के हिंसा पर उठाये प्रश्नों से उठे प्रश्न)

स्वर्ग सिधार!

आज फिर कोई मर गया! क्या हुआ? किराये का था घर, गया! सादा सा था सच क्यॊं सर गया हकीकत आपकी या कोई गैर है? पसंद आई तो अपनी नहीं तो बैर है? सच बुनियाद है! आपकी ही इबादत  आपकी फ़रियाद है, ये कौन सा हिसाब है भरोसा, यकीं, आमीन कब से सौदा बन गया? आप के गम से सवाल नहीं हैं, पर आँसू समंदर की बूँद हैं, उनका दरिया क्यॊं? सफर जिनका था मुकम्मल हुआ, आज आपका है, कल, कल हुआ!  (मौत की कुछ खबरें और उनसे होती व्यथा को देखकर)

अज्ञात कहाँ?

  हिम्मत के हथियार कहाँ, कश्ती की पतवार कहाँ, खाली हाथों के बोझ को, कंधे ये तैयार कहाँ? दिखती है सबको हिम्मत,पर अब अपनी ललकार कहाँ, काँटों के मौसम में यारब, गुलशन में गुलज़ार कहाँ ? कारोबार नहीं बदले हैं, पर अब वो बाज़ार कहाँ मुहँ मांगे जो दाम लगा दे, अब वो ऐतबार कहाँ? हरदम बिखरे ही बैठे हैं, कब हम हैं तैयार कहा वही मिजाज़, वही तेवर हैं, समझे ऐसे यार कहाँ? पहले थी कमज़ोर हकीकत, अब कहते शैतान यहाँ, मुलजिम ठहरे तेरे यारब, अब गुस्ताखी माँफ कहाँ? साहिल अब भी वही है, लहरों का संसार वही साथ नहीं छुटा है अब भी, हो गए तुम मंझदार कहाँ? सफर लंबा था थोडा, अपना साथ कहाँ छोड़ा जाहिर हो गए सब रास्तों को, अब हम हैं अज्ञात कहाँ? (सफर का एकांत और उससे झूझती सोच के द्वन्द से पैदा)

देर-अंधेर

सुबह के फूल, शाम की धुल चमचमाती गाड़ियां नयी जैसी, बहुत सारे पानी की ऐसी की तैसी, गेंदे से सुसज्जित, पूजा युक्त गाडियाँ भक्तों के हाथों, सिग्नल तोडती हुई, "भगवान मालिक है" अपनी ही दुनिया है, उसमे 'नो एंट्री' कैसी? कहते है आज, बुरे पर अच्छे की जीत है! 'आज' पर इतना संगीन इलज़ाम तिलमिलाते 'आज' को दिलासा, यही रीत है, अब राम की लीला होगी, सीता की कौन सोचे, "एक चादर मैली सी" एक चाय की दुकान पर, टोपी लगाये, कूच हाल्फ़-पैंट टोपी लगाये, और चुस्की लेते, गाँधी(वाद) को तो पहले ही निपटा दिया अब कौन सा सच बाकी है, गुजरात गवाह है, आज सच बहुत खाकी है, टक-टक की लय पर थिरकते पाँव, चमकती रोशिनी, दुनिया रोशन, सबको एहसास है, अँधेरा है चिराग तले, वो जगह बकवास है और सुबह उठ कर देखता हूँ सड़कों पर कचरे का ढेर है (ईद के दूसरे दिन भी हैदराबाद में यही नज़ारा था, हम सब एक हैं!) सूअर हँस हँस कर कह रहे है शुक्र है मालिक! आज देर कहाँ, सिर्फ अंधेर है, दशहरा-दिवाली वगैरा आप को मुबारक हो! (नवरात्री के शो...

पहचान से दो दो हाथ

मैं अपने दायरों में फिर भी बंधा नहीं, उड़ने के लिए मुझे एक आसमां बहुत है   अपनी आँखों से दुनिया को ख़्वाब दिखाते हैं, आप पानी डालते रहिये हम आग बनाते हैं ये माना गहरे पानी में नहीं आपकी नांव के सवार बैठकर साहिल पर हमने भी किये कुछ शिकार वो और होंगे जो कतार बनाते हैं हम वो नहीं जो गिनतियों में आते हैं, समझदार को सिर्फ एक इशारा है, डूबते को तिनके का सहारा है हो जौहरी को हीरे की पहचान तराशने वाले के हाथों में उसकी जान आपको लगते हैं अगर अब भी अनजान चलिए समझिए यही है हमारी पहचान बंजारों के लिए सफर भी एक मक़ाम होए है, शुक्रगुजार हो दिल जो एक पल भी कोई साथ होये है (१९९७ में नौकरी की तलाश में तैयार अपने पहचान पत्र/Resume से उद्वत)

मज़हब, इंसान और ...

राम का नाम , करने लगे काम तमाम , करते हैं खुदा का सौदा , और रंगीन शाम कौन कहता है अल्लाह के बंदे हैं ? दुनिया गटर है , और कीड़े गंदे हैं ! रख दिया आदमी का नाम ' आम ' एक के खून को बनाते है दूसरे का बाम... अपने मुल्क में इंसानों की फसल अच्छी है,  जब चाहे काट लो, छांट लो , बाँट लो, सप्लाई ज्यादा, डिमांड कम हो, तो कौडिओं के दाम लगते है, और फसल स्लम में हो तो पैदावार/यील्ड भी जबरदस्त, दो बीघा जमीं में बीस परिवार, इस से पहले की कोई सरकारी योजना की बीमारी लगे काट लो, छांट लो , बाँट लो, अब अल्ला मियां को थोडा और काम होगा, बन्दों तक कैसे पहुंचे, सजदा होते सरों को तो लाऊड- स्पीकर कान होगा, और वहां की आवाज़ वर्तमान की मुलाजिम है और जो अल्ला मियां से ज्यादा अपनी सोच पर यकीं रखते है दुनिया की चमक, रफ़्तार, और गरज़ अब सबकी अकीदत में सेंध लगा चुकी है सलाम अब सलामती हो गया है, वालेकुम किसी कोने में खो गया है!

खूबसूरती

खूबसूरती क्या है...     क्या है? दिल ओर दिमाग जब एक होकर किसी मधुर सच्चाई से मिलते हैं आराम से ....निश्चिन्त होकर बिना किसी रूकावट के उस पल की खूबसूरती का एहसास क्या है? खूबसूरती...! इसके मायने जिंदगी को लाज़मी हैं पर क्या हम इस खूबसूरत एहसास की तरफ जीवंत हैं? या फिर, अपने विचारों की सुरंग में ही अपने जीवन का अंत है!   नदी, तालाब, पहाड़ों से बहता हरियाली का सैलाब इस खूबसूरती के बीच रहकर हम, अगर धुप-छाँव नहीं खेल रहे, तो क्या हम जी रहे हैं??? (जिद्दू कृष्णमूर्ति की चहलकदमी और उस से जुड़े उनके चिंतन से अनुरचित)

हो सकें तो!

चलते हैं उस रास्ते जो खत्म नहीं होते, चोट लगती है हमें पर जख्म नहीं होते! महबूब की तमाम मुश्किलें हम से हैं हम से ही कहते हैं काश! हम नहीं होते आदतों से मजबूर अब वो नहीं होते रात-दिन, शामों-सहर अब हम नहीं होते नींद में तडपकर हाथ थाम लेते हैं, ख्वाबों में उनके, क्या हम नहीं होते? कितनी गर्दिशें झेली हैं तो खुद को समझा है ओर कोई होता, तो बेशक! हम नहीं होते मतलब निकलता है तब तक साथ सबका है मुश्किलों में तो गोया हम, हम नहीं होते! मोहब्बत में उनकी अब भी वोही ज़ज्बा है, बाँहों में उनकी पर अब हम नहीं होते