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करवा...कैसे नहीं करबा?

शान है, अभिमान है,
इतिहास गौरव

और सम्प्रदाय महान है?
औरत जननी भी है,
और वही बदनाम भी,
सीता, राम से महान है,
वरना गले न उतरता पान है,
द्रोपदी को पाँच से आंच नहीं,
सौ से उसकी जाँच है?
मतलब जब तक घर की बात है
औरत, गद्दे के उपर की
बस एक चादर है,
पर घर के बाहर
हाथ मत लगाना,
गुस्सा है
या झूठे ज़ज्बात हैं?
जयललिता, हो माया हो, या राबरी,
सब पर औरत होने का तंज है
गंजे, तोंदू, छप्पनी, व्यसनी,
मर्दों का कुछ नहीं,
सब को भरोसा है,
क्रवाचौथ की दुआ पे नहीं,
करवाचौथ की सत्ता पर,
कि ये एक निशानी है,
दुनिया वही पुरानी है,
तरक्की, आज़ादी, बराबरी
ये बात सब बेमानी है!
आखिर झुक कर पैरों आनी है,


"अपनी मर्ज़ी से", करती हैं
मर्ज़ी के दर्ज़ी कहते हैं!
वोही मर्ज़ी,
जो उन्हें जलाती है?
मारती फ़िर फ़ुसलाती है?
सड़क पर बेचारा करती है?
और समाज मे लाचारा!
गर्भ में नागवारा करती है?
शादी के बाद जिसकी 'न' का वूज़ूद नहीं,
उसकी "हां" क्या है?
मजबूरी गवाह नहीं है,
जीहुज़ूरी करिये
चाँद के ज़रिये
हर पतिता को पति मुबारक हों!

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