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सफ़र-ए-ताल्लुक!


किस मोड़ पर हमसफ़र होंगे, 
मैं पहुँचती/ता हूँ, 
उम्मीद है आप खड़े होंगे?

कितना मुश्किल है बनते हुए रिश्तों की लकीरों पर चलना

एहसास को क्यों शरीर चाहिए,
क्यों लम्हों के अमीर चाहिए
नज़दीक आने कि तमाम मुश्किलें हैं,
मोहब्बत को फकीर होना चाहिए


समस्या बहने कि नहीं बहते हुए रहने कि,
चलो हम बह भी गए तो साहिल क्या होगा
गुजरते वक़्त को कायल क्या होगा
और रुक गये तो हासिल क्या होगा
"इश्क" है जाहिल तेरा क्या होगा

दूरियों के सब फर्क मिटा दें तो क्या हाथ आएगा 
हांसिल होगा कुछ या होंसला बढ़ जायेगा
नजदीक आयेंगे या फ़ासला आ जायेगा
एक होँगे या आसरा बढ़ जायेगा

पहचान आप से और अपने आप से
मेरे हिस्से कि जमीं, और आप कि नजदीकियां
मुझे अपने फासले पसंद हैं.
नज़दीक होँ  तो आपको नज़र आयें,
एक रास्ते भी हैं और सफ़र भी अलग नहीं
पर मोड़ आने से पहले कैसे मुड़ जाऊं.
जाहिर है मुड़ने का डर नहीं, जरा मुड़ कर भी देखिये
मेरे पहुँचने में जरा वक़्त है.
इंतज़ार सफ़र को रोकता नहीं
शायद,
मुश्किल है,
पर इंतज़ार मेरा भी है,
दूरियां परेशां करती हैं
और नजदीकियां बेसब्र.
फिर भी याद रखना है
सफ़र दोनों को तय करना है ,
किसको पता है किस मोड़ हमसफ़र हो जाएँ...
(दोस्तों के उभरते हुए रिश्तों कि पशोपेश से प्रेरित)

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